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बौद्ध परम्परामें इस प्रकारके अश्वको बलाहक कहा गया । बोधिसत्व भी एक बार बलहरस ( वक्लभाश्व ) की योनिमें जन्मे थे और उस रूपमें उन्होंने मृत्युके अन्धकूपमें पड़े हुये ५०० बानरोंका उद्धार किया था । यह कथा बलहरस जातक में दी हुई है। साथ ही, मथुराकी एक वेदिकाके स्तम्भपर इसका चित्रण भी है ।
प्राचीन भारतीय कला में ईहामृग या बहुविध आकृतिवाले रूपोंकी कल्पना की गई जिसमें सिंहव्याल, गजव्यालके साथ ही अश्वव्याल भी था । इनमें भिन्न मस्तकके भिन्न शरीरका जोड़ बैठाया जाता था । मध्यकालीन शिल्पग्रन्थोंमें उनकी संख्या १६ कही गयी है । प्रत्येकको १६ मुद्राओंमें अंकित किया गया है । इस प्रकार व्यालरूपोंकी संख्या २५६ तक पहुँची ( अपराजित पृच्छा २३३/४/६ इति षोडश व्यालानि उक्तानि मुखभेदत: ) । चतुर शिल्पी और दन्त्य लेखक इसकी सुन्दरताको बढ़ाते हुये अपनी प्रतिभाको भी दर्शाते थे । प्राचीन कपिशा ( बेग्राम ) से प्राप्त दन्त फलकोंपर इन व्यालोंका सटीक चित्रण हुआ है जो कुषाण कालीन गन्धार कलामें लोकप्रिय था । भरहुत, सांची और मथुराकी कलामें ईहामृग पशुओंको सजावट है । अधिकतर शकलोगोंको ऐसे रूपोंसे विशेष रुचि थी । इसीसे मिलते-जुलते अलंकरणोंको वृषभमच्छ, हरितमच्छ इत्यादिके साथ ही अश्वमच्छ रूपमें मथुराकी वेदिकाके फुल्लोंमें दिखाया गया है । भारतीय पुराणोंकी साक्षीके अनुसार, ये सब रुद्रके प्रथम गण हैं जिनके मुख और अंग अनेक रूपोंमें विकृत हैं । प्रत्येक मनुष्यके चेहरेपर नराकृति है. किन्तु उसके पीछे अपने-अपने स्वभावके अनुसार पशु-पक्षियोंके छिपे हुये चेहरे समझना चाहिये । जिसका जैसा स्वभाव उसका वैसा मुखड़ा, यही इन भेदोंका सूत्र है । इस कल्पनाका मूल ऋग्वेद में पाया जाता है ।
द्ध साहित्य में अश्वमुखी यक्षीका उल्लेख आया है ( पदकुसल मागव जातक ) । सारनाथके सिंह स्तम्भ,, सिंह संघाटके सदृशकी कार्लेके चैत्यघर में स्तम्भ शीर्षकोंपर हयसंघाट उत्कीर्ण है ( पीठ सटाकर बैठे हुये पशुओं को संघाट कहते हैं ) ।
वैदिक अभिप्रायमें प्रथम चार अश्वोंके रथ पर सूर्यको आरूढ़ दिखाया गया है । पीछे अश्वोंकी संख्या सात तक हो गयी । बोधगया वेदिका पर चतुरश्व योजित रथपर बैठे हुए सूर्यका चित्रण है | भाजा गुफा में द्वितीय शती पूर्वकी एक मूर्ति चतुरश्वयोजित रथमें बैठी हुई है । मथुराकी कुषाण कलामें सूर्यके रथमें दो या चार अश्व दिखाये गये हैं । यही परम्परा गांधार और सासानी कलामें मिलती है। काबुल के समीप खोरखानासे प्राप्त संगमरमरकी सूर्य मूर्तिके रथमें चार घोड़े जुते हैं । गुप्तकाल से लेकर मध्यकालके सूर्य के रथोंमें सात घोड़े पाये जाते हैं ।
शैशुनाग- नन्द युग (छठी श० ई० पू० से चौथी श० ई० पू० ) की कलामें राजघाटसे प्राप्त चकिया में (जो अब लखनऊ संग्रहालय में है ) मातृदेवीके बाईं औरका पशु अश्व है। पटनासे प्राप्त चकिया पर तीन समान केन्द्रित वृत्त हैं । इसके दूसरे वृत्तमें १२ पशुओंमें अश्व भी अंकित है । मुर्तजीगंजकी चकियापर भी अश्वका चित्रांकन है । ये चकिया मातृपूजा के लिये प्रतीकात्मक चिह्न या मन्त्र थे ।
मौर्यकालके ( ३२५-१८४ ई० पू० ) लुम्बिनी उद्यान वर्तमान रुम्बिनि देई ) के स्तम्भपर अश्व शीर्षक था । युवाङ चाके अनुसार, यह बिजली गिरनेसे बीचमें टूट गया था । यहाँ भगवान बुद्ध शाक्य मुनिका जन्म हुआ था ( हिदे बुधे जाते शक्यमुनि ति ) ।
स्तम्भ शीर्षकोंपर चार महा आजानेय पशुओंकी मूर्तियाँ पायी जाती हैं । चार पशु अश्व, सिंह, वृषभ और हाथी हैं । इन चार पशुओंकी परम्परा सिन्धुघाटीकी प्राचीनताको छूती हुई १९वीं शताब्दी तक आती है । इसका देशगत विस्तार भारतसे लेकर लंका, श्याम वर्मा और तिब्बत तक मिलता है । बौद्ध
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