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५६८ : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : तृतीय अध्याय
संत की विशेषता संत पुरुष के जीवन में कितनी ही आपतियाँ क्यों न आ पड़े, उसके चित में तनिक भी विकृति नहीं आती है. सत्य यह है कि दुःख काल में संतपुरुष का जीवन और अधिक निखरता है. शंख को अग्नि में डाल दिया जाय तो भी वह अपनी शुभ्रता नहीं त्यागता. संत पुरुष मारणान्तिक संकट के अवसर पर भी घबराते नहीं हैं किन्तु उनके जीवन से तप-संयम का सौरभ निरंतर महकता रहता है. कुठार चन्दन के वृक्ष को काटता है, उसका समूल नाश करता है। फिर भी चन्दन तो कुठार के मुख को भी सुवासित करता है. काटने वाले को भी सुगन्ध ही प्रदान करता है. ऐसे ही साधु जन का चाहे कोई अपकार करे या उपकार, दोनों पर उस की दया-दृष्टि समान रहती है. साधु के लक्षण-साधु पुरुष वह है जो, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को जीवन में धारण करके अपनी इंद्रियों को निगृहीत कर लेते हैं. सन्त पुरुष इन्द्रियों के दास नहीं होते, किन्तु 'गोस्वामी' होते हैं. वे सदा भिक्षाजीवी होते हैं और रसनेद्रियविजयी, सहज रूप से जो भी निर्दोष रूखा-सुखा उपलब्ध हो जाय, उसे ही अपने समभाव के साँचे में ढालकर अमृत बना लेते हैं. रसनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना बहुत ही दुष्कर है, किन्तु सच्चे संत के लिये कोई भी कार्य दुष्कर नहीं होता. क्रोध की आंधी सन्त पुरुष के मन-मानस में किंचित् भी क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकती. मान रूप सर्प उस पर आक्रमण नहीं कर सकता. उनका अन्तःकरण निश्छल एवं सरल होता है. लोभ रूप अजगर उन्हें ग्रसित नहीं कर सकता है. उनके जीवन में कषायों का प्राबल्य नहीं होता है. वे जानते हैं कि कषायों का प्रशमन ही सन्तजीवन का सर्वोपरि लक्ष्य है. भावसत्य, करणसत्य, योगसत्य, क्षमावान्, वैराग्यवान्, मन:समाधारणीय, वच:समाधारणीय, कायःसमाधारणीय, ज्ञानसंपन्नता, दर्शनसम्पन्नता, चारित्रसम्पन्नता, वेदनाध्यास, मारणान्तिकसमाध्यास आदि इन सताईस गुणों से जो युक्त हों, वे ही साधु पुरुष माने जाते हैं. वे निकाय जीवों की रक्षा करते हैं, आठों मदों के त्यागी होते हैं, नववाड़ सहित शुद्ध ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, दस प्रकार के यतिधर्म, बारह प्रकार की तपस्या के और सत्रह प्रकार के संयम के पालनकर्ता होते हैं. उनके जीवन में चाहे कितने ही परिषह उपस्थित हों, कभी घबराते नहीं हैं, बल्कि सहर्ष परिषह सहन करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि कष्टों के साथ संघर्ष करना ही आत्मिक शक्ति की वृद्वि का रहस्य है. संत की कष्टसहिष्णुता-संत अपने प्राण बचाने के लिये, दूसरों को कष्ट की भट्टी में नहीं झोंकते. वे समय आने पर अपने प्राणों की बाजी लगाकर भी दूसरों की रक्षा ही करते हैं. कहा है :
'विपद्यपि गता: संतः पाप कर्म न कुर्वते,
हंसः कुक्कुटवत्कीटं नात्ति किं क्षुधितोऽपि हि.' हंस चाहे कितने ही दिन भूखा रह जाय, कुक्कट के समान कीट भक्षण नहीं करता. ऐसे ही संतजन के जीवन में कितने ही घोर संकट क्यों न समुपस्थित हो जायं फिर भी पाप कर्म में उनकी प्रवृत्ति नहीं होती है. मेतार्य मुनि भिक्षार्थ नगर में घूम रहे थे. बीच से एक स्वर्णकार का घर आता है, और मुनि उसके वहां भी भिक्षार्थ पधारते हैं. उस समय स्वर्णकार सोने के यव बना रहा था. उनको वहीं पर छोड़कर मुनि को आहारदान देने के लिये वह रसोई घर में जाता है. अचानक आकर एक कुक्कुट उन स्वर्ण-यवों को चुग जाता है. स्वर्णकार मुनि को भिक्षा देकर बाहर आता है तो स्वर्णयब नहीं दिखाई देते. स्र्वणकार को मुनि पर ही आशंका होती है. वह मुनि से पूछता है किन्तु मुनि एकदम मौन रहते हैं. मुनि को ज्ञात था कि स्वर्णयवों को कुक्कुट चुग गया है, किन्तु उसे प्रकट कर देने से कुक्कुट को प्राणों से हाथ धोना पड़ेगा. स्वर्णकार इस मौन का अर्थ समझता है कि स्वर्णयवों को चुराने वाला यही
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