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है । अतः अनुमानकी सत्यताका आधार विशिष्ट ( साध्याविनाभावी) हेतु ही है, जो कोई नहीं । यहाँ वात्स्यायन के प्रतिपादन और उनके 'विशिष्ट हेतु' पदसे अव्यभिचारी हेतु अभिप्रेत है जो नियमसे साध्यका गमक होता है । वे कहते हैं कि यह अनुमाताका ही अपराध माना जाएगा कि वह अर्थविशेषवाले अनुमेय अर्थको सामान्य अर्थसे जानने की इच्छा करता है, अनुमानका नहीं ।
इस प्रकार वात्स्यायनने अनुमानके उपादानोंके परिष्कार एवं व्याख्यामूलक विशदीकरणके साथ कितना ही नया चिन्तन प्रस्तुत किया है ।
अनुमान के क्षेत्र में वात्स्यायनसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण कार्य उद्योतकरका है । उन्होंने लिंगपरामर्शको अनुमान कहा है । अब तक अनुमानकी परिभाषा कारणसामग्रीपर निर्भर थी । किन्तु उन्होंने उसका स्वतन्त्र स्वरूप देकर नयी परम्परा स्थिर की । व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मताका ज्ञान ही परामर्श है । उद्योतकर की दृष्टि में लिगलिगसम्बन्धस्मृतिसे युक्त लिंगपरामर्श अभीष्टार्थ (अनुमेयार्थ ) का अनुमापक है । वे कहते हैं ि अनुमान वस्तुतः उसे कहना चाहिए, जिसके अनन्तर उत्तरकालमें शेषार्थ (अनुमेयार्थ ) प्रतिपत्ति (अनुमिति) हो और ऐसा केवल लिंगपरामर्श ही है, क्योंकि उसके अनन्तर नियमतः अनुमिति उत्पन्न होती है । लिंगलिगसम्बन्धस्मृति आदि लिंगपरामर्शसे व्यवहित हो जानेसे अनुमान नहीं है । उद्योतकरकी यह अनुमानपरिभाषा इतनी दृढ़ एवं बद्धमूल हुई कि उत्तरवर्ती प्रायः सभी व्याख्याकारोंने अपने व्याख्या -ग्रन्थों में उसे अपनाया है । नव्यनैयायिकोंने तो उसमें प्रभूत परिष्कार भी उपस्थित किये हैं, जिससे तर्कशास्त्र के क्षेत्र में अनुमानने व्यापकता प्राप्त की है। और नया मोड़ लिया है ।
न्यायवार्तिककारने गौतमोक्त पूर्ववत् शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट इन तीनों अनुमान-भेदोंकी व्याख्या करनेके अतिरिक्त अन्वयी, व्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी इन तीन नये अनुमान - भेदोंकी भी सृष्टि की है, जो उनसे पूर्व न्यायपरम्परा में नहीं थे । 'त्रिविधम्' सूत्रके इन्होंने कई व्याख्यान प्रस्तुत किये हैं । " निश्चयतः उनका यह सब निरूपण उनकी मौलिक देन है । परवर्ती नैयायिकोंने उनके द्वारा रचित व्याख्याओंका ही स्पष्टीकरण किया है ।
उद्योतकर द्वारा बौद्धसन्दर्भ में की गयी हेतुलक्षणसमीक्षा भी महत्त्व की है। बौद्ध' हेतुका लक्षण त्रिरूप
१, २ . वही ० २।१।३९, पृष्ठ ११५ ।
३. न्यायवा० १।११५, पृष्ठ ४५ आदि ।
४. वही ११५, पृष्ठ ४५ ।
५. तस्मात् स्मृत्यनुगृहीतो लिंगपरामर्शोऽभीष्टार्थप्रतिपादक : - वही, १११५, पृ० ४५ ।
६. यस्माल्लिंगपरामर्शादनन्तरं शेषार्थप्रतिपत्तिरिति । तस्माल्लिंगपरामर्शो न्याय्य इति ।
स्मृतिर्न प्रधानम् । किं कारणम् ? स्मृत्यनन्तरमप्रतिपत्तेः । - वही, १ १ ५, पृ०५ ।
७. वाचस्पति, न्यायवा० ता० टी० १।११५, पृ० १६९ । तथा उदयन, ता० टी० परिशु० १।१।५, पृ० ७०७ ।
८. गंगेश उपाध्याय, तत्त्वचिन्तामणि, जागदीशी, पृ० १३, ७१ । विश्वनाथ, सिद्धान्तमु० पृष्ठ ५० आदि ।
९. न्यायवा० १।११५, पृ० ४६ ।
१०. वही, ११५, पृ० ४६-४९ ।
११. दिग्नागशिष्य शङ्कर, न्यायप्रवेश, पृ० १ ।
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