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________________ एक विरुद्धाव्यभिचारीका' भी कथन उपलब्ध होता है, जो ताकिकों द्वारा अधिक चचित एवं समालोचित हुआ है। न्यायप्रवेशकारने दश दृष्टान्ताभासोंके अन्तर्गत उभयासिद्ध दृष्टान्ताभासको द्विविध वणित किया है और जिससे प्रशस्तपाद जैसी ही उनके दृष्टान्ताभासोंकी संख्या द्वादश हो जाती है। पर प्रशस्तपादोक्त द्विविध आश्रयासिद्ध उन्हें अभीष्ट नहीं है। ___ कुमारिल और उनके व्याख्याकार पार्थसारथिने मीमांसक दृष्टिसे छह प्रतिज्ञाभासों, तीन हेत्वाभासों और दृष्टान्तदोषोंका प्रतिपादन किया है। प्रतिज्ञाभासोंमें प्रत्यक्षविरोध, अनुमानविरोध और शब्दविरोध ये तीन प्रायः प्रशस्तपाद तथा न्यायप्रवेशकारकी तरह ही हैं। हाँ, शब्दविरोधके प्रतिज्ञातविरोध, लोक-प्रसिद्धिविरोध और पूर्वसंजल्पविरोध ये तीन भेद किये हैं। तथा अर्थापत्तिविरोध, उपमानविरोध और अभावविरोध ये तीन भद सर्वथा नये हैं, जो उनके मतानुरूप है। विशेष" यह कि इन विरोधोंको धर्म, धर्मी और उभयके सामान्य तथा विशेष स्वरूपगत बतलाया गया है। त्रिविध हेत्वाभासोंके अवान्तर भेदोंका भी प्रदर्शन किया है और न्यायप्रवेशकी भाँति कुमारिलने विरुद्धाव्यभिचारी भी माना है। सांख्यदर्शनमें युक्तिदीपिका आदिमें तो अनुमानदोषोंका प्रतिपादन नहीं मिलता। किन्तु माठरने असिद्धादि चउदह हेत्वाभासों तथा साध्यविकलादि दश साधर्म्य-वैधयं निदर्शनाभासोंका निरूपण किया है। निदर्शनाभासोंका प्रतिपादन उन्होंने प्रशस्तपादके अनसार किया है। अन्तर इतना ही है कि माठरने प्रशस्तपादके बारह निदर्शनाभासोंमें दशको स्वीकार किया है और आश्रयासिद्ध नामक दो साधर्म्य-वैधर्म्य निदर्शनाभासोंको छोड़ दिया है । पक्षाभास भी उन्होंने नौ निर्दिष्ट किये हैं। जैन परम्पराके उपलब्ध न्यायग्रन्थोंमें सर्वप्रथम न्यायावतारमें अनुमान-दोषोंका स्पष्ट कथन प्राप्त होता है। इसमें पक्षादि तीनके वचनको परार्थानुमान कहकर उसके दोष भी तीन प्रकारके बतलाए हैं -- १. पक्षाभास, २. हेत्वाभास और ३. दृष्टान्ताभास । पक्षाभासके सिद्ध और बाधित ये दो भेद दिखाकर बाधितके प्रत्यक्षबाधित, अनमानबाधित, लोकबाधित और स्ववचनबाधित--ये चार भेद गिनाये हैं। असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक तीन हेत्वाभासों तथा छह माधर्म्य और छह१२ वैधर्म्य कुल बारह दृष्टान्ताभासोंका भी कथन किया है । ध्यातव्य है कि साध्यविकल, साधनविकल और उभयविकल ये तीन साधर्म्यदृष्टान्ताभास तथा साध्याव्यावृत्त साधनाव्यावृत्त और उभयाव्यावृत्त ये तीन वैधHदृष्टान्ताभास तो प्रशस्त १. वही, पृ० ४। २. न्यायप्र०, १० ७। ३. मी० श्लोक, अनु०, श्लोक० ५८-६९, १.८ । ४. न्यायरत्ना०, मी० श्लोक०, अनु०, ५८-६९, १०८ । ५. मी० श्लो०, अनु० परि०, श्लोक ७०, तथा व्याख्या । ६. वही, अनु० परि०, श्लोक ९२ तथा व्याख्या । ७. माठरवृ० का० ५। ८. न्यायाव० का० १३, २१-२५ । ९-१०. वही, का० २१ । ११. वही, का० २२, २३ । १२. वही, का० २४, २५ । ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211569
Book TitleBharatiya Vangamay me Anuman Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationArticle & Logic
File Size3 MB
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