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________________ अनुमान-भेद बतलाये हैं-१ दृष्ट और २ सामान्यतोदष्ट । अथवा १. स्वनिश्चितार्थानुमान और परार्थानुमान । मीमांसादर्शनमें शबरने' प्रशस्तपादके प्रथमोक्त अनुमानद्वैविध्यको ही कुछ परिवर्तनके साथ स्वीकार किया है-१ प्रत्यक्षतोदृष्टसम्बन्ध और २ सामान्यतोदृष्टसम्बन्ध । सांख्यदर्शनमें वाचस्पतिके अनुसार वीत और अवीत ये दो भेद भी मान लिये हैं । वीतानुमानको उन्होंने पूर्ववत् और सामान्यतोदृष्ट द्विविधरूप और अवीतानुमानको शेषवरूप मानकर उक्त अनुमानत्रैविध्यके साथ समन्वय भी किया है । ध्यातव्य है कि सांख्योंकी सप्तविध अनुमान-मान्यताका भी उल्लेख उद्योतकर, वाचस्पति और प्रभाचन्द्र ने किया है। पर वह हमें सांख्यदर्शनके उपलब्ध ग्रन्थोंमें प्राप्त नहीं हो सकी। प्रभाचन्द्रने तो प्रत्येकका स्वरूप और उदाहरण देकर उन्हें स्पष्ट भी किया है । आगे चलकर जो सर्वाधिक अनुमानभेद-परम्परा प्रतिष्ठित हुई वह है प्रशस्तपादकी उक्त-१ स्वार्थ और २ परार्थभेदवाली परम्परा । उद्योत करने पूर्ववदादि अनुमावत्रविष्यकी तरह केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी इन तीन नये अनुमानभेदोंका भो प्रदर्शन किया है। किन्तु उन्होंने और उनके उत्तरवर्ती वाचस्पति तकके नैयायिकोंने प्रशस्तपादनिर्दिष्ट उक्त स्वार्थ-परार्थके अनुमानद्वैविध्यको अंगीकार नहीं किया । पर जयन्तभट्ट और उनके पश्चात्वर्ती केशव मिश्र आदिने उक्त अनुमानविष्यको मान लिया है। बौद्ध दर्शनमें दिड्नागसे पूर्व उक्त द्वैविध्यको परम्परा नहीं देखी जाती। परन्तु दिड्नागने उसका प्रतिपादन किया है । उनके पश्चात् तो धर्मकीर्ति आदिने इसीका निरूपण एवं विशेष व्याख्यान किया है। जैन ताकिकोंने" इसी स्वार्थ-परार्थ अनुमानद्वैविध्यको अंगीकार किया है और अनुयोगद्वारादिपतिपादित अनुमानत्रैविध्यको स्थान नहीं दिया, प्रत्युत उसकी समीक्षा की है ।१२ इस प्रकार अनुमान-भेदोंके विषयमें भारतीय ताकिकोंकी विभिन्न मान्यताएँ तर्कग्रन्थोंमें उपलब्ध होती हैं। तथ्य यह कि कणाद जहाँ साधनभेदसे अनुमानभेदका निरूपण करते हैं वहाँ न्यायसूत्र आदिमें १. शाबरभा० १।१।५, पृष्ठ ३६ । २. सां० त० कौ० का० ५, पृ० ३०-३२ । ३. न्यायवा० ११११५, पृष्ठ ५७ । ४. न्यायवा० ता० टी० १२११५, पृष्ठ १६५ । ५. न्यायकु० च० ३।१४, पृष्ठ ४६२ । ६. न्यायवा० ११११५, पृष्ठ ४६ । ७. न्यायमं पृष्ठ १३०, १३१ । ८. तर्कभा० पृ० ७९ । ९. प्रमाणसमु० २।१। १०. न्यायबि० पृ० २१, द्वि० परि० । ११. सिद्धसेन, न्यायाव० का० १० । अकलंक, सि० वि० ६।२, पृष्ठ ३७३, । विद्यानन्द, प्र०प० पृ० ५८ । माणिक्यनन्दि, परी० मु० ३।५२, ५३ । देवसूरि, प्र० न० त० ३।९, १०,। हेमचन्द्र, प्रमा णमी० ११२।८, पृष्ठ ३९ आदि । १२. अकलंक, न्यायविनि० ३४१, ३४२, । स्याद्वादर० पृष्ठ ५२७ । आदि । -२६७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211569
Book TitleBharatiya Vangamay me Anuman Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherZ_Darbarilal_Kothiya_Abhinandan_Granth_012020.pdf
Publication Year1982
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationArticle & Logic
File Size3 MB
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