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________________ - -- - - G eneral LLBilabaas. साध्वीरनपुष्टावती अभिनन्दन ग्रन्थ R ANDARGETHEE22553SHARESHESenada RATHI मनोविज्ञान की दृष्टि से जिस वस्तु पर चेतना का प्रकाश सबसे अधिक केन्द्रित होता है, वह ध्यान का विषय है ।39 ध्यान का विषय प्रतिक्षण बदलता रहता है। जब हमारी चेतना एक पदार्थ पर केन्द्रीभूत होती है तब उससे सम्बन्धित दूसरे पदार्थों का भी सामान्य ज्ञान हमें होता रहता है। किन्तु इन पदार्थों का ज्ञान अत्यधिक सामान्य होता है । इसलिये मनोवृत्ति को तीन भागों में विभाजित किया है । ध्यानावस्था में मन की शुभवृत्ति होती है । शुभ वृत्ति की एकाग्रता को ही ध्यान में स्थान है । जैन सिद्धान्तानुसार भी यही मान्यता है, उसने विशेषतः मनोविकारों पर विजय पाने पर अधिक बल दिया है । इन्द्रिय और मन को नाश करने के लिए या दमन करने के लिए नहीं कहा किन्तु सहज रूप से आत्मा के शुभाशुभ भावों को ज्ञाता द्रष्टा बनकर देखने को कहा। क्रियात्मक रूप में ये माध्यम हैं। ध्यान साधना-मार्ग का ध्यान से विकारों पर विजय प्राप्त की जाती है । विषय-विकार और कषाय पर पूर्णतः विजय प्राप्त करना ही जैनागम के अनुसार ध्यान है। ध्यान प्रक्रिया में मन का अग्रगण्य स्थान है। साधना में मन के सहायक और बाधक रूप में दो कार्य हैं । मनोविज्ञान ने तीन प्रकार की प्रक्रिया स्वीकार की हैं। .. (१) अवधान, (२) संकेन्द्रीकरण (संकेन्द्रण) और (३) ध्यान । 'अवधान' की प्रक्रिया में 'मन' को किसी वस्तु की ओर चेतनोन्मुख किया जाता है । 'अवधान' और 'चेतनोन्मुख' ये दोनों शब्द एकार्थक है । पिट्सबरी और मैकडोनल आदि मनोवैज्ञानिकों ने 'अवधान' को एक प्रक्रिया के रूप में स्वीकार किया है, जो मन की ऐन्द्रिय अभिधान प्रक्रिया से सम्बन्धित है। 'अवधान' में 'मन' बाह्य अनुभवों के प्रति अधिक क्रियाशील रहता है और इस प्रक्रिया में मानसिक ऊर्जा वस्तु' के प्रति गतिशील रहती है। बाह्य वस्तुओं के प्रति 'मन' की यह गतिशीलता 'मन' का केवल एकमात्र क्षेत्र है । इसके अतिरिक्त 'मन' का दूसरा भी क्षेत्र है जिसे 'स्वरूप' में केन्द्रित किया जाता है। इस स्थिति में 'प्रज्ञा' का उद्गम होता है, जो ऐन्द्रिय जगत से सापेक्ष होते हुए भी निरपेक्ष प्रतीत होता है। यह मानसिक प्रक्रिया एकात्मक अवस्था का प्रथम चरण है। इस अवस्था में ही ज्ञानात्मक इन्द्रियाँ आन्तरिक रूप से 'एकता' की दशा तक पहुँचाती हैं। इसलिये ज्ञान प्रक्रिया के अन्तर्गत फ्रायड ने मन को तीन भागों में बाँटा है - (१) ईड, (२) ईगो और (३) सुपरईगो । भारतीय विचारधारा में ये ही ननस, अहंकार और बुद्धि के रूप में मिलते हैं । मन से बुद्धि तक का विस्तार ही मानसिक क्रिया का विकासशील स्वरूप है। मन के सूक्ष्म स्तर को सुपरईगो द्वारा ग्रहण किया जाता है । जब मन 'अवधान' से आगे बढ़कर 'संकेन्द्रीकरण' की ओर अग्रसर होता है तब वह (मन) 'वस्तु' के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान करता है। इस अवस्था में मन अधिक गहराई में जाकर 'तल्लीनता' का अनुभव करता है। किसी पदार्थ या वस्तु में एकाग्रता आना ही 'संकेन्द्रीकरण-संकेन्द्रण' अवस्था है। इस प्रक्रिया में मन की एकाग्रता बढ़ जाती है । तब तीसरी 'ध्यान' की प्रक्रिया में प्रवेश होता है। "ध्यान" की अवस्था तक आते-जाते विचारों का समूह सीमित हो जाता है। इसीलिये विचार प्रक्रिया में विचारों का क्रम ज्ञानेन्द्रिय-क्रिया के साथ चलता है। इसका एकमात्र कारण यही है कि ध्यान एक मानसिक प्रक्रिया का विशिष्ट कृत और केन्द्रित रूप है।43 ध्यान चित्तशुद्धि का एक मनोवैज्ञानिक क्रियात्मक रूप है। चित्तशुद्धि के लिए मनोविज्ञान में विविध प्रणालियों (विधियों) का प्रयोग किया गया है। जैसे43..... । 'भारतीय-वाङमय में ध्यानयोग : एक विश्लेषण' : डॉ० साध्वी प्रियदर्शना | ३३६.
SR No.211568
Book TitleBharatiya Vangamaya me Dhyan Yoga
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanaji Sadhvi
PublisherZ_Sadhviratna_Pushpvati_Abhinandan_Granth_012024.pdf
Publication Year1997
Total Pages31
LanguageHindi
ClassificationArticle & Meditation Yoga
File Size4 MB
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