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________________ ई. प्रथम शती से लेकर बारहवीं शती तक है । विष्णु की कई गुप्तकालीन प्रतिमाएं अत्यन्त कलापूर्ण हैं । कृष्ण एवं बलराम की भी कई प्राचीन मूर्तियां मिली हैं। बलराम की सबसे पुरानी मूर्ति ई० पूर्व दूसरी शती की है, जिसमें वे हल और मूसल धारण किये दिखाये गये हैं । अन्य हिन्दू देवता, जिनकी मूर्तियाँ मधुरा कला में मिली हैं, कार्तिकेय, गणेश, इन्द्र, अग्नि, सूर्य, कामदेव, हनुमान आदि हैं। देवियों में लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, महिषमर्दिनी, सिंहवाहिनी, दुर्गा, सप्तमातृका, वसुधारा, गंगा-यमुना आदि के मूर्त रूप मिले हैं। शिव तथा पार्वती के समन्वित रूप अर्धनारीश्वर की भी कई प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। ब्रज में प्राप्त जैन अवशेषों को तीन मुख्य भागों में बाँटा जा सकता है : तीर्थकर प्रतिमाए', देवियों की मूर्तियां और आयागपट्ट । चौबीस तीर्थंकरों में से अधिकांश की मूर्तियां ब्रज को कला में उपलब्ध हैं । नेमिनाथ की यक्षिणी अम्बिका तथा ऋषभनाथ की यक्षिणी चक्रेश्वरी की मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। आयागपट्ट प्रायः वर्गाकार शिलापट्ट होते थे जो पूजा में प्रयुक्त होते थे। उनपर तीर्थंकर, स्तूप, स्वस्तिक, नद्यावर्त आदि पूजनीय चिह्न उत्कीर्ण किए जाते थे । मथुरा-संग्रहालय में भी एक सुंदर आयागपट्ट है जिसे उस पर लिखे हुए लेख के अनुसार लवणशोभिका नामक एक गणिका की पुत्री वसु ने बनवाया था। इस आयागपट्ट पर एक स्तूप का अंकन है तथा वेदिकाओं सहित तोरण-द्वार बना है। मथुरा-कला के कई उत्कृष्ट आयागपट्ट लखनऊ-संग्रहालय में भी हैं। रंगवल्ली का प्रारम्भिक सज्जा-अलंकरण इन आयागपट्रों में दर्शनीय है। मथुरा के समान भारत का एक बड़ा सांस्कृतिक केन्द्र विदिशा-सांची क्षेत्र था। वहाँ वैदिक, पौराणिक, जैन तथा बौद्ध धर्म साथ-साथ शताब्दियों तक विकसित होते रहे। विदिशा के समीप दुर्जनपुर नामक स्थान से हाल में तीन अभिलिखित तीर्थकर प्रतिमाएं मिली हैं। उन पर लिखे हुए ब्राह्मी लेखों से ज्ञात हुआ है कि ई० चौथी शती के अंत में इस स्थल पर वैष्णव धर्मानुयायी गुप्त वंश के शासक रामगुप्त ने कलापूर्ण तीर्थंकर प्रतिमाओं की प्रतिष्ठापना करायी। संभवत: कुल प्रतिमाओं की संख्या चौबीस थी। विदिशा नगर के निकट एक ओर उदयगिरि की पहाड़ी में वैष्णव धर्म का केन्द्र था, तथा दूसरी ओर पास हो साँची में बौद्ध केन्द्र था । जैन धर्म के समता-भाव का इस समस्त क्षेत्र में प्रभाव पड़ा। बिना किसी द्वष-भाव के सभी धर्म यहां संवधित होते रहे । इस प्रकार के उदाहरण कौशाम्बी, देवगढ़ (जिला ललितपुर, उ० प्र०) खजुराहो, मल्हार (जिला बिलासपुर, म०प्र०), एलोरा आदि में भी मिले हैं । दक्षिण भारत में वनवासी, कांची, मूडविद्रो, धर्मस्थल, कारकल आदि ऐसे बहुसंख्यक स्थानों में विभिन्न धर्मों के जो स्मारक विद्यमान हैं, उनसे इस बात का पता चलता है कि समवाय तथा सहिष्णुता को हमारी विकासशील संस्कृति में प्रमुखता दी गयी थी। विभिन्न धर्मों के आचार्यों ने समवाय-भावना को विकसित तथा प्रचारित करने में उल्लेखनीय कार्य किये हैं। जैन धर्म में आचार्य कालक, कुंदकुंद, समंतभद्र, हेमचंद्र, देवकीर्ति आदि ने इस दिशा में बड़े सफल प्रयत्न किये। जनसाधारण में ही नहीं, समृद्ध व्यवसायी वर्ग तथा राजवर्ग में भी इन तथा अन्य आचार्यों का प्रभूत प्रभाव था। पारस्परिक विवादों को दूर करने में तथा राष्ट्रीय भावना के विकास में उनके कार्य सदा स्मरणोय रहेंगे । जैन धर्माचार्यों ने दक्षिण भारत के दो प्रसिद्ध राजवंशों- राष्ट्रकट तथा गंग-वंश-के तीव्र विवादों को दूर कर उनमें मेल कराया । अनेक आचार्य मार्ग की कठिनाइयों की परवाह न कर दूर देशों में जाते थे। कालकाचार्य, कुमारजीव, दीपंकर, अतिसा आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं । पश्चिमी एशिया, मध्य एशिया, चीन, तिब्बत तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के अनेक देशों में इन विद्वानों ने भारतीय संस्कृति का संदेश फैलाने में बड़ा कार्य किया। उनका संदेश समस्त जीवों के कल्याण हेतु था। दीपंकर के बारे में प्रसिद्ध है कि जब उन्हें ज्ञात हुआ कि भारत पर विदेशी आक्रमणों की घटा उमड़ने वाली है, तब वे तिब्बत को (जहां वे उस समय थे) छोड़कर भारत आये। यहां वे बंगाल के पाल शासक नयपाल से मिले और फिर कलचुरि-शासक लक्ष्मीकर्ण के पास गये । इन दोनों प्रमुख भारतीय शासको को उन्होंने समझाया कि आपसी झगड़े भूलकर दोनों शासक अपने शत्र का पूरी तरह मुकाबला करें, जिससे देश पर विदेशी अधिकार न होने पाये । इस यात्रा में आचार्य दीपंकर को लंबे मार्ग की अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। परंतु राष्ट्र के हित के सामने ये सब कष्ट उनके लिए नगण्य थे। __श्रवणबेलगोल के लेखों से ज्ञात हुआ है कि वहाँ विभिन्न कालों में अनेक प्रसिद्ध विद्वान रहे हैं । ये विद्वान् जैन शास्त्रों के अतिरिक्त अन्य धर्मों के शास्त्रों में भी प्रवीण थे । अन्य धर्माचार्यों के साथ उनके शास्त्रार्थ होते थे, परन्तु वे कटुता और द्वेष की भावना से न होकर शुद्ध बौद्धिक स्तर के होते थे।। गुप्त-युग के पश्चात् भारत में बौद्ध धर्म का प्रभाव अत्यंत सीमित क्षेत्र पर रह गया। इसमें पूर्वी भारत तथा दक्षिण कोसल एवं उड़ीसा के ही कुछ भाग थे। दूसरी ओर जैन धर्म का व्यापक प्रसार प्रायः सम्पूर्ण देश में व्याप्त हो गया। इधर जैन इतिहास, कला और संस्कृति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211560
Book TitleBharatiya Dharmik Samanvaya me Jain Dharm ka Yogadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnadatta Vajpai
PublisherZ_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf
Publication Year1987
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size432 KB
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