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भारतीय दर्शनमें आत्मवाद : ३
आत्मा के विषय में पूछनेपर बुद्ध कहते थे कि 'यदि मैं कहूँ आत्मा है तो लोग शाश्वतवादी बन जाते हैं, यदि यह कहूँ कि आत्मा नहीं है तो लोग उच्छेदवादी हो जाते हैं।' बुद्ध मध्यमार्गके व्याख्याता थे।
डोक्टर आनन्द कुमार स्वामीका यह भी कहना है कि, सारे बौद्ध साहित्यमें कहीं भी यह उल्लेख नहीं मिलता कि आत्मा नहीं है अथवा जो शरीर रोगी, वृद्ध या मृत बन जाता है उससे अलग मनुष्य में कोई शक्ति नहीं होती.......3
राहुल जीने इस विषयकी व्याख्या करते हुए लिखा है कि, "बुद्ध के समयमें आत्माके स्वरूपके विषयमें दो मत प्रचलित थे। एक तो यह कि आत्मा शरीरमें बसनेवाली, पर उससे भिन्न एक शक्ति है, जिनके रहनेसे शरीर जीवित रहता है और जिसके चले जानेसे वह शव हो जाता है। दूसरा मत यह था कि आत्मा शरीरसे भिन्न कोई कूटस्थ वस्तु नहीं है। शरीरमें ही रसोंके योगसे आत्मा नामक शक्ति पैदा होती है, जो शरीरको जीवित रखती है। रसोमें कमी-बेशी होनेसे इस शक्तिका लोप हो जाता है जिससे शरीर जीवित नहीं रह पाता। बुद्धदेवने अन्यत्रकी भाँति यहां भी बीचकी राह पकड़ी
और यह कहा कि आत्मा न तो सनातन और कूटस्थ है न वह शरीरके रसों पर ही बिलकुल अवलम्बित रहती है और न वह शरीरसे बिलकुल भिन्न ही है। वह, असलमें स्कन्धों भूत (Matter) और मन(Mind)के योगसे उत्पन्न एक शक्ति है, जो अन्य बाह्य भूतोंकी भांति क्षण-क्षण उत्पन्न और विलीन होती रहती है। उन्होंने न तो भौतिकवादियों के उच्छेदवादको स्वीकार किया, न उपनिषदवादियोंके शाश्वतवादको। असलमें, आत्माके विषयमें उनका मत अशाश्वतानुच्छेदवादका पर्याय था।"४ माध्यमिक बौद्धों के अनुसार व्यवहारदशामें जीवात्मा प्रतिभासित होता है किन्तु उसका मूल स्वरूप शून्य
न्याय-वैशेषिकदर्शनके अनुसार-जीवात्मा कूटस्थनित्य और विभु है। वह अनेक है। बुद्धि या ज्ञान, सुख-दुःख, राग-द्वेष, इच्छा, प्रयत्न आदि गुण उसमें रहते हैं। ये जड़ जगत के गुण नहीं है अतः हमे मानना ही पड़ता है कि ये एक ऐसे द्रव्य के गुण हैं जो जड़ द्रव्योंसे भिन्न है, जिसे आत्मा कहतें है। महर्षि कणादने 'प्राणापान, निमेषोन्मेष, जीवन, मनोगति, इन्द्रियान्तर, आदि आत्माके लिङ्ग बतलाये हैं। 'इंद्रिय और शरीर आदिका नियन्त्रण करनेवाला आत्मा है। जो करण होता है वह कर्ताकी अपेक्षा रखता है। इनका मत वस्तुवादी है। वैशेषिक सुख दुःख आदिकी समानताकी दृष्टि से आत्माकी एकता मानते है और व्यवस्थाकी दृष्टिसे आत्माकी प्रति शरीर भिन्नता मानते हैं।
१ अस्तीति शाश्वतग्राही, नास्तीत्युच्छेददर्शनम् । तस्मादस्तित्व-नास्तित्वे, नाश्रीयेत विचक्षणः ॥ मा० का० १८।१० २ आत्मेत्यपि प्रशापितमनात्मेत्यपि देशितम् । बुबै त्मा न चानात्मा, कश्चिदित्यपि देशितम् ॥ मा० का० १९४६
जैनदर्शनके मौलिकतत्त्व ।-पृ० ३९२ । ३ संस्कृतिके चार अध्याय, दिनकरजी, पृ० १३९ । ४ संस्कृतिके चार अ०, पृ० १३९ । ५ सर्व० द० सं०, पृ० ३६ । ६ प्राणापाननिभेषोन्मेष ...... आत्मलिङ्गानि । वैशेषिक सू० ३।२।४ । ७ आत्मेन्द्रियायधिष्ठाता करणं हि सकर्तृकम् ।-मुक्तावली का० ४७ । ८ सुख-दुःख-ज्ञान-निरूपत्वविशेषादैकात्म्यम् । वै० सू० ३।२।१९ । ९ व्यवस्थातो नाना । वै० सू० ३।२।२० । जीवस्तु प्रतिशरीरं भिन्न:-तर्कसंग्रह
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