SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भारतीय दर्शन में सामाजिक चेतना 531 अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् / शंकर कहते हैं - उदारचरितानां तु बसुधैव कुटुम्बकम् / / 'वासनाप्रक्षयो मोक्षः' संन्यास की भूमिका न तो आसक्ति की भूमिका है और न (विवेक चूड़ामणि, 318) उपेक्षा की / उसकी वास्तविक स्थिति ‘धाय' (नर्स) के समान ममत्व वस्तुतः मोह और क्षोभ हमारे जीवन से जुड़े हुए हैं और रहित कर्तव्य भाव की होती है / कहा भी गया है - इसलिए मुक्ति का सम्बन्ध भी हमारे जीवन से ही है / मेरी दृष्टि में मोक्ष सम दृष्टि जीवड़ा करे कुटुम्ब प्रतिपाल / मानसिक तनावों से मुक्ति है / यदि हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक अन्तर सूं न्यारा रहे जूं धाय खिलावे बाल / / सार्थकता के सम्बन्ध में विचार करना चाहते हैं तो हमें इन्हीं मनोवृत्तियों वस्तुत: निर्ममत्व एवं नि:स्वार्थ भाव से तथा वैयक्तिकता और एवं मानसिक विक्षोभों के सन्दर्भ में उस पर विचार करना होगा / स्वार्थ से ऊपर उठकर कर्तव्य का पालन ही संन्यास की सच्ची भूमिका सम्भवत: इस सम्बन्ध में कोई भी दो मत नहीं रखेगा कि राग, द्वेष, है / संन्यासी वह व्यक्ति है जो लोक मंगल के लिए अपने व्यक्तित्व एवं तृष्णा, आसक्ति, ममत्व, ईर्ष्या, वैमनस्य आदि की मनोवृत्तियाँ हमारे अपने शरीर को समर्पित कर देता है / वह जो कुछ भी त्याग करता है सामाजिक जीवन के लिए अधिक बाधक हैं / यदि इन मनोवृत्तियों से वह समाज के लिए एक आदर्श बनता है। समाज में नैतिक चेतना को मुक्त होना ही मुक्ति का हार्द है तो मुक्ति का सम्बन्ध हमारे सामाजिक जाग्रत करना तथा सामाजिक जीवन में आने वाली दुःप्रवृत्तियों से व्यक्ति जीवन के साथ जुड़ा हुआ है / मोक्ष मात्र एक मरणोत्तर अवस्था नहीं है को बचाकर लोक मंगल के लिए उसे दिशा-निर्देश देना संन्यासी का अपितु वह हमारे जीवन से सम्बन्धित है / मोक्ष को पुरुषार्थ माना गया सर्वोपरि कर्त्तव्य माना गया है / अत: हम कह सकते हैं कि भारतीय है। इसका तात्पर्य यह है कि वह इसी जीवन में प्राप्तव्य है, जो लोग दर्शन में संन्यास की जो भूमिका प्रस्तुत की गई है वह सामाजिकता की मोक्ष को एक मरणोत्तर अवस्था मानते हैं, वे मोक्ष के वास्तविक स्वरूप विरोधी नहीं है / संन्यासी क्षुद्र स्वार्थ से ऊपर उठकर खड़ा हुआ व्यक्ति से अनभिज्ञ हैं / आचार्य शंकर लिखते हैं - होता है / जो आदर्श समाज रचना के लिए प्रयत्नशील रहता है / अब देहस्य मोक्षो नो मोक्षो न दण्डस्य कमण्डलौः / हम मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता पर चर्चा करना चाहेंगे। अविद्या हृदय ग्रन्थि मोक्षो मोक्षो यतस्ततः / / -विवेक चूड़ामणि, 559 भारतीय दर्शन मानव जीवन के लिए अर्थ, काम, धर्म और मरणोत्तर मोक्ष या विदेह-मुक्ति साध्य नहीं है / उसके लिए मोक्ष इन चार पुरुषार्थों को स्वीकार करता है। यदि हम सामाजिक जीवन कोई साधना अपेक्षित नहीं है। जिस प्रकार मृत्यु जन्म लेने का अनिवार्य के सन्दर्भ में इन पर विचार करते हैं तो इनमें से अर्थ, काम और धर्म परिणाम है उसी प्रकार विदेह-मुक्ति तो जीवन-मुक्ति का अनिवार्य का सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है / सामाजिक जीवन में ही परिणाम है / अत: जो प्राप्तव्य है, जो पुरुषार्थ है और जो साध्य है वह इन तीनों पुरुषार्थों की उपलब्धि सम्भव है / अर्थोपार्जन और काम का तो जीवन-मुक्ति ही है / जीवन-मुक्ति के प्रत्यय की सामाजिक सार्थकता सेवन तो सामाजिक जीवन से जुड़ा हुआ ही होता है / किन्तु भारतीय से हम इन्कार भी नहीं कर सकते क्योंकि जीवन-मुक्ति एक ऐसा चिन्तन में धर्म भी सामाजिक व्यवस्था और शान्ति के लिए ही है क्योंकि व्यक्तित्व है जो सदैव लोक-कल्याण के लिए प्रस्तुत रहता है / जैन धर्म को 'धर्मोधारयते प्रजाः' के रूप में परिभाषित कर उसका सम्बन्ध दर्शन में तीर्थंकर बौद्ध दर्शन में अर्हत् एवं बोधिसत्व और वैदिक दर्शन भी हमारे सामाजिक जीवन से जोड़ा गया है / वह लोक-मर्यादा और में स्थितप्रज्ञ की जो धारणाएँ प्रस्तुत की गई हैं और उनके व्यक्तित्व को लोक-व्यवस्था का ही सूचक है। अत: पुरुषार्थ-चतुष्टय में केवल मोक्ष जिस रूप में चित्रित किया गया है उससे हम निश्चय ही इस निष्कर्ष पर ही एक ऐसा पुरुषार्थ है जिसकी सामाजिक सार्थकता विचारणीय है। पहुँच सकते हैं कि मोक्ष के प्रत्यय की सामाजिक उपादेयता भी है / वह प्रश्न यह है कि क्या मोक्ष की धारणा सामाजिक दृष्टि से उपादेय हो. लोक-मंगल और मानव कल्याण का एक महान् आदर्श माना जा सकती है ? जहाँ तक मोक्ष की मरणोत्तर अवस्था या तत्त्वमीमांसीय सकता है क्योंकि जन-जन का दुःखों से मुक्त होना ही मुक्ति है, मात्र धारणा का प्रश्न है उस सम्बन्ध में न तो भारतीय दर्शनों में ही एक- इतना ही नहीं, भारतीय चिन्तन में वैयक्तिक मुक्ति की अपेक्षा भी लोक रूपता है और न ही उसकी कोई सामाजिक सार्थकता ही खोजी जा कल्याण के लिए प्रयत्नशील बने रहने को अधिक महत्त्व दिया गया सकती है / किन्तु इसी आधार पर मोक्ष को अनुपादेय मान लेना उचित है। बौद्ध दर्शन में बोधिसत्व का और गीता में स्थितप्रज्ञ का जो आदर्श नहीं है। लगभग सभी भारतीय दार्शनिक इस सम्बन्ध में एकमत हैं कि प्रस्तुत किया गया है, वह हमें स्पष्ट रूप से बताता है कि केवल मोक्ष का सम्बन्ध मुख्यतः मनुष्य की मनोवृत्ति से है / बन्धन और मुक्ति वैयक्तिक मुक्ति को प्राप्त कर लेना ही अन्तिम लक्ष्य नहीं है / बोधिसत्व दोनों ही मनुष्य के मनोवेगों से सम्बन्धित हैं / राग, द्वेष, आसक्ति, तो लोक मंगल के लिये अपने बन्धन और दुःख की कोई परवाह नहीं तृष्णा, ममत्व, अहं आदि की मनोवृत्तियाँ ही बन्धन हैं और इनसे मुक्त करता है / वह कहता है - होना ही मुक्ति / मुक्ति की व्याख्या करते हुए जैन दार्शनिकों ने कहा था बहूनामेक - दुःखेन यदि दुखं विगच्छति / कि मोह और क्षोभ से रहित आत्मा की अवस्था ही मुक्ति है / आचार्य उत्पाद्यमेव तद् दुःखं सदयेन परात्मनोः / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211551
Book TitleBharatiya Darshan me Samajik Chetna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Shwetambar_Sthanakvasi_Jain_Sabha_Hirak_Jayanti_Granth_012052.pdf
Publication Year1998
Total Pages3
LanguageHindi
ClassificationArticle & Society
File Size876 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy