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________________ भारतीय तत्त्व-चिन्तन में जड़-चेतन का सम्बन्ध २६५ तरह अनन्त है, उसका कभी अन्त नहीं आता, अथवा वह कदापि परिपूर्ण नहीं होती। ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ, तष्णा एवं आकांक्षा बढ़ती है। इसलिए राग और द्वष अथवा आसक्ति कर्म-बन्ध का मूल कारण है। और वीतराग भाव, अनासक्ति एवं स्व-स्वभाव में परिणमन कर्म-बन्धन से मुक्त होकर परम आनन्द एवं परम सुख को प्राप्त करने का मूल कारण या श्रेयस पथ है। इसलिए प्रबुद्ध-साधक वह है, जो भेद-विज्ञान के द्वारा स्व-स्वरूप का बोध करके विवेक पूर्वक निःश्रेयस्-पथ पर गति करता है। अज्ञान का स्वरूप बन्ध का कारण अज्ञान है । अनात्म अथवा जड़ पदार्थों में आत्म-बुद्धि रखना और आत्मा में अनात्म भाव रखना अथवा जिस वस्तु का जो स्वभाव है, उसे उसके विपरीत मानना एवं समझना, अज्ञान एवं अविद्या है। आत्मवादी विचारकों के अनुसार आत्मा एक स्वतन्त्र, पृथ्वी आदि मत तत्त्वों से निर्मित भौतिक शरीर से सर्वथा भिन्न शाश्वत द्रव्य है । अतः भौतिक शरीर, इन्द्रिय, प्राण एवं मन आदि को आत्मा मानना मिथ्या-ज्ञान है। तथागत बुद्ध किसी स्वतन्त्र एवं शाश्वत द्रव्य को स्वीकार नहीं करते। फिर भी तथागत इस बात को स्वीकार करते हैं, कि शरीर आदि जड़ पदार्थों में आत्म-बुद्धि रखना मिथ्या-ज्ञान या मोह है। छान्दोग्य उपनिषद् में शरीर आदि अनात्म पदार्थों को आत्मा स्वीकार करने को असुरों का ज्ञान कहा है। न्याय-दर्शन में मिथ्या-ज्ञान का अपर (दूसरा) नाम मोह है। शरीर, इन्द्रिय, मन, प्राण, वेदना और बुद्धि-इन अनात्म पदार्थों में आत्माग्रह रखना-यह मैं ही हूँ, ऐसी आग्रह बुद्धि मोह है।६ वैशेषिक-दर्शन की भी यही मान्यता है । सांख्य-दर्शन में विपर्यय को अज्ञान कहा है-ज्ञानस्य विपर्ययोऽज्ञानम् । वह इससे तीन प्रकार का बन्ध स्वीकार करता है-१. प्रकृति को पुरुष मानकर उसकी उपासना करना-प्राकृतिक-बन्ध, २. भूत, इन्द्रिय, अहंकार, बुद्धि आदि विकारों को पुरुष मानकर उसकी उपासना करना-वैकारिक-बन्ध, और ३. इष्ट आपूर्त अथवा मन एवं इन्द्रियों को अभीष्ट लगने वाले भोगों की पूर्ति में संलग्न रहना-दाक्षणिक-बन्ध है। योग-दर्शन में विपर्यय के स्थान पर क्लेश शब्द का प्रयोग किया है। अनित्य, अशुचि, दु:ख एवं अनात्म पदार्थों में नित्य, शुचि, सख और आत्म-बुद्धि रखना क्लेश है। जैन-परम्परा में कषाय और योग (मन, वचन और काय के व्यापार) को बन्ध का कारण माना है। अनन्तानुबन्धी कषाय अज्ञान अवस्था में रहता है। इसलिए इसका विस्तार करके मिथ्यात्व, अवत, कषाय, प्रमाद और योग को बन्ध का कारण स्वीकार किया। अन्य दर्शनों में मिथ्यात्व को मिथ्या-ज्ञान, अज्ञान, अविद्या और विपर्यय तथा क्लेश कहा है। उत्तराध्ययन सूत्र एवं स्थानांग सूत्र में राग-द्वेष एवं मोह को कर्म-बन्ध का कारण कहा है। राग-भाव में माया और लोभ तथा द्वेष-भाव में क्रोध और मान समाविष्ट हो जाता है। राग १ उत्तराध्ययन सूत्र ६,४८ २ वही, ८,१७ ३ वही, ३२,७ ४ विसुद्धि मग्गो, १७,३०२, सुत्तनिपात्त, ३,१२,३३ ५ छान्दोग्य उप०, ८,८,४-५ ६ न्याय-दर्शन, प्रशस्तपाद भाष्य, ४,२,१ ७ सांख्यकारिका-माठर वृत्ति, और सांख्य तत्त्व कौमुद्री, ४४ ८ योग-दर्शन, २.३ से ५ ६ उत्तराध्ययन सूत्र, २१.१६; २३.४३; २८.२०; २६.७१ और ३२.७; स्थानांग सूत्र २.२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211546
Book TitleBharatiya Tattva Chintan me Jad Chetan ka Sambandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSamdarshimuni
PublisherZ_Munidway_Abhinandan_Granth_012006.pdf
Publication Year
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size859 KB
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