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स्वर्ण युग क्या एकबारगी आ गया ? आदि प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठते हैं । ऐसे प्रश्नों के समीचीन उत्तर के लिए हमें इस काल की रचनाओं का अवलोकन करना होगा । इस अवधि में रचित पिंगल के छन्द सूत्र (२०० ई० पू० ), बौद्ध साहित्य ललित विस्तर ( प्रथम शताब्दी ई० पू० ) आदि रच नाओं में बीजगणितीय सिद्धान्तों का समावेश है तथा बड़ी-बड़ी संख्याओं ( यथा लल्लक्षण = १०53 की चर्चा है, पर जिन ग्रन्थों में गणितीय सामग्री प्रचुर मात्रा में मिलती है वे हैं जैन आगम ग्रन्थ । ये ग्रन्थ भारतीय गणित की श्रृंखला की टूटी हुई कड़ी को जोड़ने का कार्य करते हैं । अतः इन ग्रन्थों में उपलब्ध गणितीय सिद्धान्तों का अध्ययन एवं संकलन अति आवश्यक है । इस बीच कुछ विद्वानों का ध्यान इस ओर आकृष्ट हुआ है । एम० रंगा चार्य, बी० बी० दत्ता, हीरालाल जैन, नेमिचन्द्र शास्त्री, ए० एन० सिंह, टी० ए० सरस्वती, मुकुट बिहारी अग्रवाल, लक्ष्मीचन्द जैन, अनुपम जैन जैसे विद्वानों ने इस दिशा में श्लाघनीय प्रयास किये हैं जिससे बहुत सारे तथ्यों का रहस्योद्घाटन हो सका है ।
गणित अनवरत रूप से जैन मुनियों के चिन्तन एवं मनन का विषय रहा है । संख्यान ( अंक ओर ज्योतिष) उनकी ज्ञान-साधना का अभिन्न अंग है । शिक्षा के चौदह आवश्यक अंगों में इसे प्रमुख स्थान दिया गया है तथा बहत्तर विज्ञानों एवं कलाओं में अंकगणित को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है ।" इतना ही नहीं, सम्पूर्ण जैन वाङ् मय को चार अनु
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योगों (समूहों में विभाजित किया गया है जिनमें एक करणानुयोग है, जिसे गणितानुयोग भी कहा जाता है | गणितीय साधनों द्वारा सृष्टि- संरचना को स्पष्ट करना तथा कर्म सिद्धान्त की व्याख्या करना जैनाचार्यों का प्रमुख दृष्टिकोण है । इसलिए मात्र करणानुयोग का ही नहीं अपितु द्रव्यानुयोग के ग्रन्थों का भी अध्ययन गणित के परिपक्व ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है । जैन गणितज्ञ महावीराचार्य ने गणित की महत्ता बतलाते हुए कहा है
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लौकिक वैदिके वापि तथा सामायिकेऽपि यः । व्यापारस्तत्र सर्वत्र संख्यानमुपयुज्यते || अर्थात् --- सांसारिक, वैदिक तथा धार्मिक आदि सभी कार्यों में गणित उपयोगी है । यही कारण है, कि जैन आगम ग्रन्थों में गणितीय तत्त्व प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में प्रचुर मात्रा में विद्यमान है । साथ ही जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने शिष्यों की सुविधा हेतु अनेक गणितीय एवं ज्योतिष सम्बन्धी स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना भी की जिनमें कुछ तो उपलब्ध हैं और कुछ कालक्रम से नष्ट हो चुके हैं ।
सूर्य-प्रज्ञप्ति, चन्द्र प्रज्ञप्ति एवं जम्बूद्वीप पज्ञप्ति प्राचीन जैन ज्योतिष के प्रामाणिक ग्रन्थ माने जाते हैं, जिनकी रचना का समय लगभग ५०० ई० पू० समझा जाता है । प्राकृत भाषा में रचित इन ग्रन्थों
१ बी. बी. दत्ता एण्ड ए. एन. सिंह, संदर्भ- १, पृ० ११ तथा ए. के. बाग, बाईनोमियल थ्योरम इन एंसिएंट इंडिया, इंडियन जनरल आफ हिस्टरी आफ साइन्स, अंक १, १६६६, पृ. ६८-७३
२ दृष्टव्य जे. सी. जैन, लाईफ इन एंसिएंट इंडिया एज डेपिक्टेड इन दी जैन केनन्स, बम्बई, १९४७ पृ. १७८ एवं बी. बी. दत्ता एण्ड ए. एन. सिंह, सन्दर्भ -१, पृ. ६
३ लक्ष्मीचन्द जैन (सं.), गणित-सार-संग्रह, सोलापुर, १९६३, संज्ञाधिकारः श्लोक ६, पृ. २
४ द्रष्टव्य परमेश्वर झा, जैनाचार्यों की गणितीय एवं ज्योतिष सम्बन्धी कृतियाँ एक सर्वेक्षण, तुलसी प्रज्ञा, खण्ड-१२, अंक - ३, १९८६, लाडनूं, पृ. ३१
अतिरिक्त ज्योतिष्करंडक एवं गर्ग संहिता के नाम भी इस सूची में जोड़े जाते हैं । इन ग्रन्थों में ज्योतिष गणितीय विचारधारा दृष्टिगोचर होती है । सूर्य - प्रज्ञप्ति में तो पाई (ग) के दो मान - ३ एवं
पंचम खण्ड : जैन साहित्य और इतिहास
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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