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इसलिए रखा था क्योंकि उसमें समस्त पृथ्वी मंडल के प्राणियों के भरण-पोषण की क्षमता थी। इस देश को 'भारतवर्ष' का रूप देने वाला सम्राट् भरत वास्तव में एक असाधारण पुरुष था । वह दिव्य गुणों का पुंजीभूत रूप था । समग्र मानवता का प्रतीक था। वह इस महान् देश की सांस्कृतिक आत्मा का प्रतिनिधि था। वह शक्तिसम्पन्नता एवं विकास की एक अमर गाथा था। वह चक्रवर्ती सम्राट् था और चक्रवर्ती सम्पदा के अपरिमित वैभव का स्वामी था । चक्रवर्ती राजा के रूप में वैभव का उपभोग करने की उसमें अद्वितीय क्षमता थी। वह सुहृदय कवि एवं ललित विद्याओं का निष्णात पंडित था । अतः गृहस्थाश्रम में रहते हुए उसने धार्मिक रीतियों के निर्वाह के साथ-साथ कलाओं को कृतार्थ करने के लिए जीवन का भरपूर आनन्द लिया। भारतीय नारी के आदर्श गुणों की प्रतीक रानी कुसमा जी के हाथ से सुस्वादु रसपूर्ण भोजन ग्रहण करने, राजप्रासाद के रत्नजटित खंड में नारी कुसमा जी के मन को विभोर कर देने वाले नृत्य का अवलोकन करने, स्नेह के दीपक को प्रज्ज्वलित कर ताम्बूलपत्रों के सौहार्दपूर्ण आदान-प्रदान करने और शरीर को सांसारिक सुखों के सिन्धु में निमग्न करने के उपरान्त चेतना के लौटने पर चक्रवर्ती भरत का विरक्त मन शरीर की परिधियों को भेदकर अन्ततोगत्वा आत्मरस में ही आनन्दानुभूति का अनुभव करता था । नन्नात्म वरेब वरेंद्र व मुच्चि । तन्न तानोलगे निट्टत || मन्नेय रोवन जे कवि अम्म सौनि नसुनि ॥
अर्थात् श्री भरतेश जी शयन करते हुए आंख बन्द कर के विचार करने लगे कि मेरी आत्मा क्षुधा से पीड़ित नहीं है। यह सब कुछ शरीर के लिए करना आवश्यक है। इस प्रकार विचार मग्न होते हुए भी अन्न की उष्णता से उन्हें निद्रा आ गई ।
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सम्राट् भरत भक्ति एवं अध्यात्म का युगद्रष्टा महापुरुष था । युद्धभूमि के कोलाहलमय वातावरण में भी वह निर्माण के गीत गाता था। अपने पुत्र अर्क कीर्तिकुमार को प्यार से गोद में लेकर मनोविनोद में सम्राट् भरत निम्नलिखित शब्दों का उच्चारण करवा रहे थे 'आदि तीर्थंकर', 'चिदम्बर पुरुष' एवं 'निरजंन सिद्ध' बालक तुतलाहट में कह रहा था आदिकर, विवएस' एवं 'निज सिद्ध पारिवारिक परिवेश संस्कारों का निर्माण करते हुए अर्ककीर्तिकुमार की तुतलाहट का जो रसास्वाद राजा भरत ने किया था, वह शब्दों की सीमाओं में निबद्ध नहीं किया जा सकता। इस लौकिक एवं अलौकिक आनन्द को अनुभव करने के लिए राष्ट्र को आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी जैसे साहित्य मनीषी की निरंतर अपेक्षा रहेगी।
सम्राट् भरत इस सनातन राष्ट्र की सांस्कृतिक सम्पदा - आत्म-वैभव के सिद्ध पुरुष थे । इसीलिए अनुश्रुतियों में उन्हें 'राजा योगी' के नाम से सम्बोधित किया जाता रहा है। भेद विज्ञान द्वारा उन्होंने आत्मा एवं पुद्गल के पार्थक्य का अल्पवय में ही परिज्ञान कर लिया था । अतः एक कुशल शासक होते हुए भी उनका हृदय सन्त समागम के लिए आकुल रहता था । इन्द्रियजन्य सुखों का उपभोग करते हुए उनका आन्तरिक मन सांसारिकता से सर्वथा विरक्त था । सम्राट् भरत की सांसारिक भोगों के प्रति अरुचि को तत्कालीन समाज ने भी किया अनुभव था। इसीलिए उस युग के प्रमुख कवि दिविज कलाधर ने सम्राट् भरत का कीर्तिगान करते हुए कहा था
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होरगेल्लव तोरेवोल्लगे नलागि मेरेव लोकबोलु ॥
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होरगेल बिहोलगेन विल्लेने बच्च परिवादर निम्नते ॥
अर्थात् हे राजन् ! लोक में ऐसे बहुत-से योगी होंगे जो सम्पूर्ण भोग का त्याग कर अन्तरंग में निर्मल आत्मा का दर्शन करते हैं परन्तु अतुल ऐश्वर्य रखते हुए भी अंतरंग में अकिंचन तुल्य निर्मोही होकर आत्मानुभव करने वाले आप सरीखे कितने हैं।
निर्मल आत्मा को ही समयसार स्वीकृत करने के कारण सम्राट् भरत धर्म का ही मूर्तिमान विग्रह हो गया था। चक्रवर्ती के रूप में ६६ हजार रानियों से सेवित होने पर भी वह भोगविमुख था और जीवन की क्षणभंगुरता से परिचित होने के कारण भोगों को संसार चक्र
का कारण मानता था
धर्म दिदादुदु सिरियेंदु सुखिसुत्त । धर्मव मरेयरूत्तमरु ॥ धर्म वंतरदंदु भोग के मरुलागि । कमिंगला वरिसुबरु ॥
अर्थात् संपत्ति धर्म से ही प्राप्त होती है ऐसा निश्चय कर हमेशा धर्म में उत्सुक रहने वाला पुरुष धन्य है । किसका धर्म, कैसा धर्म ऐसा ही कहकर भोग में ही रत होकर धर्म को तिरस्कृत करने वाले मूर्ख लोग सतत संसार रूपी समुद्र में मग्न होकर दुःख रूपी समुद्र में गोता खाते रहते हैं।
एक प्रशासक के दायित्वों का निर्वाह करते हुए भी उसकी दृष्टि संसारचक्र के बन्धनों से मुक्त होने के लिए निरन्तर आतुर रहती थी । महाकवि रत्नाकर वर्णी ने उसके मनोभावों का चित्रण करते हुए कहा है
गाण मद्दले ताललयके नति मद । यानेगे शिरद ध्यान विग्यते ध्यानदोलित धानोल
कुंभदोलु ।। निम्ननेन ।
अर्थात् जिस प्रकार एक नर्तकी अपने मस्तक पर घड़े को रखकर नृत्य कर रही हो और नृत्य करते समय गायन ताल लय आदि को भंग न होने देकर ये सब बातें होते हुए भी उसकी मुख की दृष्टि इसी पर केन्द्रित रहती है कि मस्तक पर रखा हुआ घड़ा गिर न पड़े,
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आचार्य रत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ
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