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कर्मयोगी श्री केसरीमलजी सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ : षष्ठ खण्ड
है कि आचार्य सोमदेव ने इन मुनियों को विशुद्ध मुनियों की छाया कहा है।' आगे चलकर बारहवीं शताब्दी में पं० आशाधर को शिथिलाचारी मुनियों की संख्या में वृद्धि के कारण यह कहना पड़ा कि खेद है कि सच्चे उपदेशक मुनि जुगनू के समान कहीं-कहीं ही दिखाई पड़ते हैं।
इस प्रकार जैन संघ की प्राचीन परम्परा में मुनियों का एक वर्ग ऐसा था जिसने समय के प्रभाव से जैनमुनि आचार-संहिता में संशोधन कर समाज को अपने साथ करने का प्रयत्न किया था, क्योंकि धार्मिकों के बिना धर्म नहीं होता । अत: धार्मिकों को बनाये रखने के लिए पूजा-विधान, मन्दिर, मूर्ति, तीर्थयात्रा आदि कार्यों में भी इन मुनियों को सम्मिलित होना पड़ा। साथ ही श्रावकों में लिए उन्हें ऐसे साहित्य का भी सृजन करना पड़ा जो जैन धर्म के अनुरूप जीवन-चर्या का विधान कर सके । यही कारण है कि लगभग आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक अनेक श्रावकाचार ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। इन सब तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि भट्टारक-परम्परा प्रारम्भ होने के पूर्व भी जैनसंघ में निम्न प्रवृत्तियाँ प्रचलित थी -
१. मुनियों का चैत्यों, वसति अथवा मन्दिरों में निवास करना । २. श्रावकों के धार्मिक कार्यों में मुनियों द्वारा सहयोग । ३. तीर्थयात्राओं का आयोजन करना। ४. मन्दिरों का जीर्णोद्धार करना एवं भूमि आदि का दान ग्रहण करना । ५. विशेष परिस्थितियों में मुनियों द्वारा वस्त्र-धारण करना। ६. साहित्य-निर्माण के साथ-साथ प्राचीन ग्रन्थों का संरक्षण करना ।
ये विशेष प्रवृत्तियाँ ही आगे चलकर भट्टारक-परम्परा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ बनीं। इसी पृष्ठभूमि के आधार पर भट्टारक-परम्परा कब से और कैसे विकसित हुई उसका विवेचन किया जा रहा है।
जैनसंघ और भट्टारक-भट्टारक-परम्परा की प्रवृत्तियाँ जैन मुनि-संघ की प्रवृत्तियों के अनुरूप हैं ईसा की दूसरी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक जैन-मुनियों के आचरण, साहित्य-साधना एवं सामाजिक कार्य आदि प्रवृत्तियाँ भट्टारकों की प्रवृत्तियों में सम्मिलित हुई । अत: मुनि, साधु और भट्टारक-ये शब्द अधिक भिन्नार्थक नहीं हैं । यद्यपि मुनि और साधु शब्द से धर्माचरण में लीन एवं आत्म-कल्याण करने वाले व्यक्ति का ही बोध होता है जबकि भट्टारक शब्द 'स्वामी' शब्द का वाचक है।
भट्टारक शब्द मुनियों के लिए कब से और किस रूप में प्रयुक्त हुआ यह कहना कठिन है, क्योंकि जैन मुनिसंघ का कोई व्यवस्थित इतिहास नहीं मिलता। दूसरी बात यह है कि भट्टारक शब्द का अर्थ भी क्रमश: परिवर्तित होता रहा है । अतः इस शब्द के अर्थ परिवर्तन को ध्यान से देखना होगा । संस्कृत व्युत्पत्ति के आधार पर 'भट्टारक' शब्द भट्ट+ऋ+अण्+कन से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ पूज्य, मान्य, आचार्य, प्रभु या स्वामी होता है । जैन मुनियों के साथ यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त होता रहा है।
__ भट्टारक शब्द का प्रयोग जैन-आगमों में आवश्यकसूत्र ३ में हुआ है। वहाँ भट्टारक या भट्टारय का अर्थ पूज्य से ही सम्बन्धित है। सस्कृत नाटकों में भट्टारक शब्द स्वामी का वाचक बन गया था ।५ राजा के लिए भी
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१. यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम् । ___ तथा पूर्वमुनिच्छाया: पूज्या: सम्प्रति संयता ॥
उपासकाध्ययन, श्लोक ७६७, पृ० ३००, २. खद्योतवत् सुदेष्टारो हा द्योन्ते क्वचित् क्वचित् ।
-सागारधर्मामृत, श्लोक ७, पृ० ११. ३. द्रष्टव्य-शास्त्री, हीरालाल-वसुनंदि श्रावकाचार की भूमिका, पृ० २१. ४. द्रष्टव्य --- पाइअसद्दमहण्णवो, ग्रन्थ क ७, पृ० ६४२ - प्राकृत ग्रन्थपरिषद्, वाराणसी-५, १९६३. ५. 'भट्टारक इतोऽध युष्माकं सुमनो मूल्यं भवतु ।' --अभिज्ञानशाकुन्तल, इलाहाबाद, १९६६, पृ० ३४२.
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