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जन-मंगल धर्म के चार चरण
भगवान महावीर और महात्मा गाँधी की भूमि पर बढ़ते कत्लखाने
एक घटना याद आती है।
महात्मा गांधी उड़ीसा में प्रवास कर रहे थे। एक दिन उन्होंने देखा कि कुछ लोग गाजे-बाजे के साथ कहीं जा रहे हैं। आगे एक सजा हुआ बकरा है। जिज्ञासावश गांधी जी ने आगे बढ़कर पूछा कि वह जूलूस क्या है और वे कहाँ जा रहे हैं? उत्तर मिला"हमने कामाख्या देवी के मंदिर में मांनता मांगी थी कि यदि हमारा अमुक काम हो गया तो हम उन पर बकरा चढ़ा देंगे। देवी ने हमारी प्रार्थना सुन ली, काम हो गया, अब हम इस बकरे की बलि चढ़ाने जा रहे हैं।"
यह सुनकर गांधीजी ने उस मूक निरीह पशु को देखा, उनकी आत्मा चीत्कार कर उठीं। उन्होंने कहा- "तुम लोग ऐसा क्यों कर रहे हो ?"
उन्होंने जबाब दिया "इसलिए कि देवी प्रसन्न होगी।"
गांधी जी ने आहत स्वर में कहा, "यदि देवी को बकरे से भी अधिक मूल्यवान भेंट की जाय तो वह और भी प्रसन्न होगी ?"
"जी हाँ।"
"तो सुनो ! गांधी ने कहा- "बकरे से भी अधिक कीमती मांस मनुष्य का होता है। होता है न?"
"जी हाँ।"
"क्या आपमें से कोई अपनी बलि देने को तैयार है ? गांधी जी ने गंभीर स्वर में पूछा
सब चुप
तब गांधी जी ने कहा- मैं तैयार हूँ। बकरे को छोड़ दो मुझे ले चलो।” उन लोगों की आत्मा एकदम जाग्रत हो उठी। उन्होंने तत्काल बकरे को छोड़ दिया।
पर आज वह संवेदनशीलता एकदम नष्ट हो गई है और संकीर्ण स्वार्थ के लिए धड़ाधड़ पशुओं का हनन किया जा रहा है। वह कमाई का ऐसा धंधा बन गया है कि दिनोदिन नये-नये कत्लखाने खुलते जा रहे हैं। इन कत्लखानों में यह दुष्कृत्य कितने क्रूर ढंग से किया जाता है, उसे कोई सहदय व्यक्ति देख नहीं सकता। देश में जगह-जगह पर ये कत्लखाने खुल गए हैं और नयेनये खुलते जा रहे हैं।
किसी जमाने में आदमी जंगली था, असमझ था वह आदमियों
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-पद्मश्री श्री यशपाल जी जैन, विद्यावाचस्पति (सम्पादक : जीवन-साहित्य) दरियागंज, दिल्ली
को भूनकर खा जाता था। वैदिक काल में नर-बलि दी जाती थी, लेकिन धीरे-धीरे मनुष्य सुसभ्य और सुसंस्कृत होता गया। उसने अनुभव किया कि जिस प्रकार हमें कष्ट होता है, उसी प्रकार दूसरों को भी कष्ट होता है। उन्होंने नर-बलि का विरोध किया। नर के स्थान पर पशुओं की बलि दी जाने लगी। विवेकशील लोगों ने कहा- पशु भी तो जीवधारी हैं। उन्हें भी मारने पर कष्ट होता है। उन्होंने पशु बलि पर भी अंकुश लगाने का आह्वान किया।
ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान महावीर के समय में भी यज्ञों में पशु बलि दी जाती थी। महावीर ने उसके विरुद्ध आवाज उठाई। हिंसा पर अहिंसा की श्रेष्ठता का वातावरण बनाया। उन्होंने मानव जाति की सोती आत्मा को जगाया।
लेकिन मनुष्य घोर स्वार्थी है उसके अन्दर पशु विद्यमान है, जो उसे अमानवीय कार्य करने के लिए सतत् प्रेरित करता रहता है। पशु बलि एकदम रुकी नहीं। आज तो वह अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गयी है। मांस का चलन अपने देश में तो बढ़ा ही है, विदेशों को भी मांस का भारी निर्यात होता है। किसी भी पशु का मांस वर्जित नहीं है। हिन्दू के लिए गाय का मांस निषिद्ध है, मुसलमानों के लिए सूअर का, किन्तु उन दोनों का मांस भी धड़ल्ले से बाहर जाता है।
भूदान के सिलसिले में जब आचार्य विनोबा भावे कलकत्ता गये थे तो एक कत्लखाने के आगे कटने वाले पशुओं की आंखों में वेबसी देखकर उन्होंने कहा था, “जी करता है कि इन निरीह प्राणियों के साथ कटने के लिए मैं भी अंदर चला जाऊँ ।”
बाद में उन्होंने बम्बई के सबसे बड़े कत्लखाने देवनार पर सत्याग्रह करने की प्रेरणा दी। आज वहाँ अनेक वर्षों से सत्याग्रह चल रहा है, लेकिन कहा जाता है कि आज उस कत्लखाने में कटने वाले पशुओं को संख्या कई गुनी अधिक हो गई है। हमारे शरीर में जरा-सी घोट लगती है तो हम बिलबिला उठते हैं, लेकिन हमें उन प्राणियों के वध में होने वाली पीड़ा का अनुभव नहीं होता, जिनमें हमारी तरह आत्मा है।
भारत की राजधानी दिल्ली में नये कत्लखाने खोलने की योजना के समय प्रशासकों से बात हुई थी उनके तर्कों में दो तर्क प्रमुख थे। पहला यह कि हमारे देश में मांसाहार का चलन बढ़ रहा है। मांस की मांग में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। हमें उसकी पूर्ति करनी है।