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जीवन था, जिसमें आत्मगुणों के अनेक मोती 'अवस्थित थे । हमारा जीवन समुद्र की ऊपरी सतह पर उछल कूद मचाने वाली लहरों का जीवन है, जिसमें हलचल, उथल-पुथल और उत्तेजना ही उत्तेजना है। महावीर का जीवन शाश्वत जीवन मूल्यों के लिए समर्पित था, जिसमें त्याग, प्रेम, दया, करुणा, मैत्री और सत्य का आलोक व्याप्त था पर हमारा जीवन सम-सामयिक बाजार मूल्यों का जीवन है, जिसमें सांसारिक विषय-भोगों की प्राप्ति की प्रतिस्पर्धा में मन्डी के भावों की तरह उतारचढ़ाव आते रहते हैं। महावीर का जीवन हार्दिकता से संचालित था । हमारा जीवन यांत्रिकता से संचालित है। महावीर ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग में विचरण किया करते थे । हम इन्द्रिय भोग और मनोरोग में विचरण करते रहते हैं । यही कारण है कि महावीर के सिद्धान्तों को बौद्धिक स्तर पर समर्थन देते हैं, वाणी से उनका गुणानुवाद करते हैं, पर कर्म से उसे आचरण में नहीं ला पाते, जीवन में नहीं उतार पाते । सिद्धान्त और आचरण का यह गतिरोध और द्वैत भाव वर्तमान सभ्यता की सबसे बड़ी दुःखान्तिका है ।
हम
महावीर ने बौद्धिक स्तर पर सिद्धांत का प्रति पादन नहीं किया। अपनी अनुभूति के क्षणों में सदाचरण के आधार पर जो कुछ जीया, वही उन का धर्म सिद्धान्त बन गया। आज हम उनकी अनुभूतियों को आसानी से अपने जीवन के लिए प्रेरणा 3 स्रोत के रूप में स्वीकार कर सकते हैं, पर इसमें बाधक है - हमारा इन्द्रिय-विषयों के प्रति आकर्षण, क्रोध, मान, माया, लोभादि विकारों के प्रति आसक्ति, दूसरों को हीन समझने की वृत्ति और चित्तवृत्ति की वक्रता । इन बाधाओं को दूर कर महावीर के चरित्र को अपने लिए अनुकरणीय बनाने के लिए जीवन में शुद्धता और मन में सरलता का भाव आवश्यक है । | चेतना की शुद्धता और सरलता होने पर ही
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धर्म अर्थात् सदाचरण स्थित रह पाता है । आज चारों ओर अशुद्धता ही अशुद्धता है । यह अशुद्धता खाद्य पदार्थों से लेकर जीवन व्यवहार के सभी क्षेत्रों में व्याप्त है । विडम्बना तो यह है कि प्रकृति ने जिन तत्वों को अशुद्धता निवारक माना है, वे भूमि, जल, वनस्पति आदि तत्व भी अग्नि, वायु, अशुद्ध होते जा रहे हैं। इसका कारण है- अत्यन्त भोगलिप्सा और उसकी पूर्ति के लिए प्रकृति का निर्मम शोषण ! यदि हम अपनी वृत्तियों पर संयम कर आवश्यकता से अधिक संग्रह न करें, अपने क्षणिक सुख के लिए दूसरों का शोषण न करें तो हमारी चेतना शुद्ध रह सकती है। शुद्धता की स्थिति ही स्वस्थता और स्वाधीनता की स्थिति है । जो शुद्ध नहीं है, वह स्वस्थ नहीं है और जो स्वस्थ नहीं है, वह तनाव मुक्त नहीं है । वह कुण्ठाग्रस्त है, हताश, निराश, दीन-हीन और शरीर रहते हुए भी मृत मूच्छित और जड़ है । महावीर ने इस जड़ता के खिलाफ क्रांति की और सदा जाग्रत रहने का रास्ता बताया। उठते-बैठते, चलते-फिरते खाते-पीते जो सजग और सावधान है, वह कभी अशुद्ध नहीं होता, अस्वस्थ नहीं होता ।
इस जागरण के लिए उन्होंने जो मार्ग का संकेत किया वह मार्ग है-अहिंसा, संयम और तपरूप मार्ग । अहिंसा अर्थात् किसी भी प्राणी को मनवचन और कर्म से दुःखी नहीं करना; जो दुःखी हैं, उनके 'दुःख को दूर करने में सदा सहयोगी बनना, प्रेम, करुणा और मैत्री के भावों से उनके हृदय के तारों के साथ अपने हृदय के तार जोड़ना, संकट के समय उनकी रक्षा करना, उनकी स्वतन्त्रता में बाधक कारणों को दूर करना । संयम का अर्थ है अपने मन वचन और कर्म की पवित्रता, अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति में न्यायपूर्वक, विवेकपूर्वक सामग्री का उपयोग, अपने अर्जन का समाजहित और लोकहित के लिए विसर्जन, अपनी वृत्तियों का संयमन और आत्मानुशासन । तप का अर्थ है अपने मानसिक विकारों को नष्ट करने के लिए सदाचरण की आग
चतुर्थ खण्ड : जैन संस्कृति के विविध आयाम
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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