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सत्य, अहिंसा आदि है।किन्तु इन सिद्धान्तों का युक्तियुक्त तर्कसंगत विवेचन जैन ग्रन्थों मे प्राप्त होता है। भगवान महावीर और उनके अनुयायियों ने इन पर गम्भीर चिन्तन किया है।
विशिष्ट नीति से अभिप्राय उन नीति-सिद्धान्तों से है, जिन तक अन्य मनीषियों की दृष्टि नही पहुँची है। ऐसे नीति-सिद्धान्त अनाग्रह, अनेकान्त, यतना, समता अप्रमाद आदि है। यद्यपि यह सभी नीति-सिद्धान्त सामाजिक सुव्यवस्था तथा व्यक्तिगत व्यावहारिक सुखी जीवन के लिए थे फिर भी अन्य र्धम प्रवर्तकों के चिन्तन से यह अछूते रह गये। भगवान् महावीर और उनके आज्ञानुयायी श्रमणों, मनीषियों ने नीति के इन प्रत्ययों पर गम्भीर विचार किया है और सुखी जीवन के लिए इनकी उपयोगिता प्रतिपादित की है। जैन नीति के मूल तत्व ।
उपर्युक्त सामान्य और विशिष्ट नीति के सिद्धान्तों को भली भाँति हृदयंगम करने के लिए यह अधिक उपयोगी होगा कि जैन नीति अथवा भगवान् महावीर की नीति के मूल आधारभूत तत्वों को और उनके हार्द को समझ लिया जाय।
__ जैन नीति के मूल तत्व है, पुण्य, संवर और निर्जरा। ध्येय हैं- मोक्ष। आस्त्रव, बंध तथा पाप अनैतिक तत्व है। जैन नीति का सम्पूर्ण भाग इन्ही पर टिका हुआ है।
पाप अनैतिक है, पुण्य नैतिक, आस्त्रव अनैतिक है, संवर नैतीक, बंध अनैतिक है निर्जरा नैतिक इस सुत्र के आधार पर हि सम्पूर्ण जैन निति को समझा जा सकता है।
पाप और पुण्य शब्दों का प्रयोग तो संसार की सभी नीति और धर्म-परम्पराओं में हुआ है, सभी ने पाप को अनैतिक बताया और पुण्य की गणना नीति में की है। यह बात अलग है कि उनकी पाप एवं पुण्य की परिभाषाओं में अन्तर है इनकी परिभाषायें उन्होंने अपनी-अपनी कल्पनाओं में बाँधकर की है।
किन्तु आस्त्रव, संवर बंध और निर्जरा शब्द जैन नीति के विशेष शब्द है। इनका अर्थ समझ लेना अभीष्ट है।
आस्त्रव का नीतिपरक अभिप्राय है- वे सभी क्रियाएँ जिनको करने से व्यक्ति का स्वयं का जीवन दु:खी हो, जिनसे समाज में अव्यवस्था फैले आतंक बढ़े विषमता पनपे, समाज के, देश के, राष्ट्र, राज्य और संसार के अन्य प्राणियों का जीवन अशान्त हो जाय, वे कष्ट में पड़ जायें।
जैन-नीति ने आस्त्रों के प्रमुख पाँच भेद माने है-१ मिथ्यात्व (गलत धारणा) २. अविरीत (आत्मानुशासन का अभाव), ३. प्रमाद (जागरुकता का अभाव-असावधानी), ४. कषाय (क्रोध, मान, कपट, लोभ) और ५. अशुभ योग (मन, वचन काय की निंद्य एवं कुत्सित वृत्तियां)। एक अन्य अपेक्षा से भी पांच प्रमुख आस्वव है- १. हिंसा, २. मृषावाद-असत्य भाषण, ३. चौर्य ४. अब्रह्म सेवन और ५. परिग्रह।।
स्पष्ट है कि ये सभी आस्त्रव अनैतिक है, समाज एवं व्यक्ति के लिए दु:खदायी है, अशान्ति, विग्रह और (उत्पीडन करने वाले है। इन आस्त्रवों को अनैतिकताओं को अनैतिक प्रवृत्तियों को रोकना, इनका आचरण न करना संवर है- नीति है, सुनीति है।
हिंसा आदि पाँचों आस्त्रवों को पाप भी कहा जाता है, इसीलिए पाप अनैतिक है। किसी का दिल दुखाना, शारिरिक मानसिक चोट पहुँचाना, झूठ बोलना, चोरी करना, धन अथवा वस्तुओं का अधिक संग्रह करना आदि असामाजिकता है, अनैतिकता है।
अनन्त पाप और दुष्कर्मों के भार से जिनका आत्म-स्वरूप तिरोहित हो जाता है, वे कभी भी सत्यता को समझ नहीं सकते।
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