________________
३२०
के लिये संचयन की इस वृत्ति से परिग्रह का विचार विकसित हुआ है मनुष्य की यह संग्रह वृत्ति कृषि उत्पादन के संचयन और स्वामित्व तक ही सीमित नहीं रही अपितु कृषि भूमि और कृषि में सहयोगी पशुओं के स्वामित्व का प्रश्न भी सामने आया। हो सकता है कि कुछ समय तक मानव ने समूह के सामूहिक स्वामित्व की धारणा के आधार पर कार्य चलाया हो, किन्तु संचयन और स्वामित्व की वृत्ति के परिणामस्वरूप स्वार्थ का उद्भव स्वाभाविक ही था। मानव की इस स्वामित्व की भूख और स्वार्थ- लिप्सा ने सामन्तवाद को जन्म दिया। राज्य एवं उनके स्वामी राजा, महाराजा और सामन्त अस्तित्व में आये और परिणाम स्वरूप मानव जाति स्वामी और दास वर्ग में विभाजित हो गई। मानव के शोषण पीड़न और अत्याचार के एक नये युग का सूत्रपात हुआ। भगवान् ऋषभ के द्वारा प्रवर्तित वही कृषि क्रांति जो मानव जाति की सुख-सुविधा और शांति का संदेश लेकर आयी थी, भगवान महावीर के युग तक आते-आते स्वार्थलिप्सा से युक्त हाथों में पहुँचकर न केवल मानव जाति में दास और स्वामी का, तथा शोषित और शोषक का वर्ग भेद खड़ा कर रही थी, अपितु मानव समाज के एक बहुत बड़े भाग के संताप और पीड़ा का कारण भी बन गई थी।
जैन विद्या के आयाम खण्ड ६
महावीर के युग की सामाजिक और आर्थिक स्थिति
भगवान् महावीर के युग में तत्कालीन समाज व्यवस्था कैसी थी ? उसमें आर्थिक वैषम्य - जन्य द्वेष, ईर्ष्या, शोषण और पीड़न आदि विद्यमान थे या नहीं? यह महत्वपूर्ण प्रश्न कई विचारकों के सम्मुख है। तत्कालीन समाज व्यवस्था का जो चित्र जैन आगमों में विद्यमान है, उससे यह नि:संकोच कहा जा सकता है कि उस युग में भी आर्थिकविषमता और तज्जन्य द्वेष, ईर्ष्या आदि सब कुछ थे। तत्कालीन समाज-व्यवस्था का जो शब्द-चित्र लगभग २५०० वर्ष के पश्चात् आज भी उपलब्ध है, उससे यह कहा जा सकता है कि उस समय समाज के सदस्यों में संग्रहवृत्ति भी थी। इस कारण जहाँ तक एक व्यक्ति बहुत अधिक धनी था वहाँ दूसरा व्यक्ति अत्यधिक अभावग्रस्त था । एक ओर शालिभद्र जैसे श्रेष्ठ थे तो दूसरी ओर पुणिया जैसे निर्धन श्रावक । बड़े-बड़े सामन्त और सेठ अपने यहाँ नौकर-चाकर रखते थे, केवल यही नहीं अपितु दास प्रथा तक विद्यमान थी। डॉ० जगदीशचन्द्र ने अपनी पुस्तक "जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज" में 'ऋणदास', दुर्भिक्षदास आदि का उल्लेख करते हुए यह भी बताया है कि इस प्रकार के दासों की मुक्ति किस प्रकार हुआ करती थी ? तात्पर्य यह है कि तत्कालीन समाज व्यवस्था में अर्थ के सद्भाव तथा अभाव (Haves and Haves not) की समस्या थी। निश्चित रूप में इस कारण विषमता, द्वेष, ईर्ष्या सब हुआ करती होगी। यदि हम जैन आगम उपासकदशांग' का अवलोकन करें तो हमें यह स्पष्ट हो जायेगा कि कुछ लोगों के पास कितनी प्रचुर मात्रा में सम्पत्ति थी। केवल यही नहीं, अपितु धन के उत्पादन के मुख्य साधन (भूमि, श्रम, पूंजी एवं प्रबन्ध) पर उनका अधिकार (चाहे एकाधिकार न हो) था। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि उस युग में एक ओर समाज के कुछ सदस्यों
Jain Education International
के पास विपुल सम्पत्ति तथा अर्थोपार्जन के प्रमुख साधन विपुल मात्रा में थे तो दूसरी ओर कुछ लोग अभाव और गरीबी का जीवन जी रहे थे। महावीर ने समाज में उपस्थित इस आर्थिक वैषम्य के कारण की खोज की और मानव की तृष्णा को इसका मूल कारण माना।
संग्रहवृत्ति या परिग्रह का मूल कारण 'तृष्णा'
भगवान् महावीर ने 'उत्तराध्ययन सूत्र' में आर्थिक वैषम्य तथा तज्जनित सभी दुःखों का कारण तृष्णा की वृत्ति को माना । वे कहते हैं कि जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है, उसके दुःख भी समाप्त हो जाते हैं। वस्तुतः तृष्णा का ही दूसरा नाम लोभ है और इसी लोभ से संग्रहवृत्ति का उदय होता है 'दशवैकालिकसूत्र' में लोभ को समस्त सद्गों का विनाशक माना गया है। जैन विचारधारा के अनुसार तृष्णा एक ऐसी दुष्पूर खाईं है जिसका कभी अन्त नहीं आता। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में इसी बात को स्पष्ट करते हुए भगवान् महावीर ने कहा है कि यदि सोने और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत भी खड़े कर दिये जाए तो भी यह तृष्णा शान्त नहीं हो सकती, क्योंकि धन चाहे कितना भी हो वह सीमित है और तृष्णा अनन्त (असीम) है अतः सीमित साधनों से असीम तृष्णा की पूर्ति नहीं की जा सकती।
3
वस्तुतः तृष्णा के कारण संग्रहवृत्ति का उदय होता है और यह संग्रहवृत्ति आसक्ति के रूप में बदल जाती है और यही आसक्ति परिग्रह का मूल है। 'दशवैकालिकसूत्र' के अनुसार आसक्ति ही वास्तविक परिग्रह है।" भारतीय ऋषियों के द्वारा अनुभूत यह सत्य आज भी उतना ही यथार्थ है, जितना कि उस युग में था जबकि इसका कथन किया गया होगा। न केवल जैन दर्शन में अपितु बौद्ध और वैदिक दर्शनों में भी तृष्णा को समस्त सामाजिक वैषम्य और वैयक्तिक दुःखों का मूल कारण माना गया है। क्योंकि तृष्णा से संग्रहवृत्ति उत्पन्न होती हैसंग्रह शोषण को जन्म देता है और शोषण से अन्याय का चक्र चलता है। भगवान् बुद्ध का भी कहना है कि यह तृष्णा दुष्पूर है और जब तक तृष्णा नष्ट नहीं होती तब तक दुःख भी नष्ट नहीं होता। 'धम्मपद' में वे कहते हैं कि जिसे यह विषैली नीच तृष्णा घेर लेती है उसके दुःख उसी प्रकार बढ़ते हैं जिस प्रकार खेतों में वीरण घास बढ़ती है।" भगवान् बुद्ध ने इस तृष्णा को तीन प्रकार का माना है- (१) भव तृष्णा (२) विभव तृष्णा और (३) काम तृष्णा भव तृष्णा अस्तित्व या बने रहने की है, यह राग स्थानीय है। विभव तृष्णा समाप्त हो जाने या नष्ट हो जाने की तृष्णा है, यह द्वेषस्थानीय है। कामतृष्णा भोगों की उपलब्धि की तृष्णा है और यही परिग्रह का मूल है। गीता में भी आसक्ति को ही जागतिक दुःखों का मूल कारण माना गया है। 'गीता' में यह स्पष्ट किया गया है कि आसक्ति का तत्व ही व्यक्ति को संग्रह और भोगवासना के लिये प्रेरित करता है। 'गीता' यह भी स्पष्ट रूप से कहती है कि आसक्ति में बंधा हुआ व्यक्ति काम भोगों की पूर्ति के लिये अन्यायपूर्वक संग्रह करता है। इस प्रकार सम्पूर्ण भारतीय चिन्तन संग्रहवृत्ति के मूल कारण के रूप में तृष्णा को स्वीकार
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.