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________________ भगवान महावीर और विश्व-शान्ति २१ . हिंसा और प्रमाद हिंसा शब्द का मूल हननार्थक हिंसि धातु में है। किसी जीव को प्राण से रहित करना हिंसा है । वस्तुतः प्रमाद ही हिंसा है क्योंकि प्रमादवश अर्थात् असावधानी के कारण ही हम किसी जीव को प्राणरहित करते हैं। एतदर्थ महावीर ने जीवों का सूक्ष्म व वैज्ञानिक वर्णन किया तथा सर्वत्र जीवों का अस्तित्व बताया। पेड़-पौधों में प्राण बताना मनुष्यों ने तभी सत्य माना जब जगदीशचन्द्र बसु ने बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में इसे प्रयोगों द्वारा सिद्ध कर दिया किन्तु भगवान महावीर ने तो पृथ्वी, जल, अग्नि आदि में जीव बताकर यत्नपूर्वक कार्य करने का संदेश दिया, जिससे हिंसा से बचा जा सकता है। जैन दृष्टि से किसी जीव का मर जाना ही अपने आप में हिंसा नहीं है किन्तु क्रोध, मान, माया, राग-द्वेष आदि कलुषित भावों से किसी जीव के प्राणों को नष्ट करने का विचार भी हिंसा है। यही भावहिंसा है। चूंकि हिंसा का मूलाधार कषायभाव है अतः बाह्य रूप में किसी की हिंसा न भी हो, यदि भीतर कषायभाव एवं राग-द्वेष की परिणति चल रही है तो वह हिंसा ही है। किसी भी प्राणी के प्रति मन में दुःसंकल्पों का प्रादुर्भाव होना भावहिंसा है। यदि किसी की आत्मा में दुष्ट संकल्प जाग्रत हो गया, सद्गुणों का नाश हुआ कि भावहिंसा हो गई। भावहिंसा बड़ी हिंसा है। जिस आत्मा में कलुषित भाव उठे उसकी भी हिंसा दूसरे के साथ ही हो रही है। विचारों व भावों के उत्कर्ष-अपकर्ष के कारण ही राजर्षि प्रसन्नचन्द्र सातवीं नरक के दलिक एकत्रित करते हुए कुछ ही क्षणों में परिणाम शुद्ध होने पर केवलज्ञान, केवलदर्शन की भूमिका पर पहुँच गये। अहिंसा जैनधर्म का प्राण है। इसे परमधर्म मानकर जहाँ महावीर ने सब जीवों के प्रति मैत्री भाव रखने की शिक्षा दी है-'खामेमि सम्वे जीवा, सम्वे जीवा खमंतु में वहाँ इसे संयम और तप की श्रेणी में रखा है । अहिंसा को मंगलकारी मानकर बताया है कि उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि अहिंसा विश्व की आत्मा है, प्राण है और है चेतना का एक स्पन्दन । समन्वय का आधार : अनेकान्तवाद प्रत्येक वस्तु अनंतधर्मात्मक है अतः उसको पूर्ण रूप में जान लेना असम्भव है। अपनी बात या धारणा के प्रति दुराग्रह होना एकान्तवाद है । यही कारण है कि हठवादिता और एकान्त दृष्टिकोण हमारे लिए अशांति और संघर्ष उत्पन्न करते हैं। महावीर ने विश्व को इस स्थिति से त्राण दिलाने के लिए हमें अनेकान्तवाद का सिद्धान्त दिया। उनका कहना है कि प्रत्येक वस्तु के अनेक पक्ष हैं अतः हमें उसे अनेक दृष्टियों से देखना एवं विभिन्न अपेक्षाओं से पर्यालोचन करना चाहिये। जैसे एक व्यक्ति किसी का पिता, पुत्र, भाई, पति आदि है। उसे एक रूप में जानना ही व मानना उसका एक धर्म (अंश) ही है। किसी वस्तु के लिए एकान्तत: 'ऐसा ही है'-कहने के बजाय हमें 'ऐसा भी है' कहना चाहिए। 'ही' के आग्रह स्थान पर 'भी' के प्रयोग से वस्तु का अपेक्षा से स्वरूप प्रकट होता है। ऐसे कथन से संघर्ष नहीं बढ़ेगा और परसार समता, स्नेह व सौहार्द का वातावरण प्रस्तुत होगा। अपेक्षादृष्टि से अनेकान्तवाद का नाम स्याद्वाद और अपेक्षावाद भी है। स्यात् का अर्थ है किसी अपेक्षा से और वाद का अर्थ है कथन । अर्थात् अपेक्षाविशेष से वस्तुतत्त्व का विवेचन करना ही स्याद्वाद है। अनेकान्तवाद के अनुसार प्रत्येक पदार्थ नित्य भी है और अनित्य भी। जैसे आत्मा कर्मानुसार मानव, पशु-पक्षी आदि रूप धारण करती है तो उसका पूर्वपर्याय नष्ट हो जाता है। दूसरी ओर चाहे कोई रूप धारण करे आत्मा सदा आत्मा ही रहेगी, कभी अनात्मा नहीं होगी। अत: इस सिद्धान्त को सप्तभंगी भी कहते हैं जिसके अनुसार किसी वस्तु को सात पक्षों से देखा जा सकता है। १. कथञ्चित् है। २. कथञ्चित् नहीं है। ३. कथञ्चित् है और नहीं है । ४. कथञ्चित् वक्तव्य है । ५. कथञ्चित् कहा नहीं जा सकता अर्थात् अवक्तव्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211495
Book TitleMahavir aur Vishwashanti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaneshmuni
PublisherZ_Pushkarmuni_Abhinandan_Granth_012012.pdf
Publication Year
Total Pages5
LanguageHindi
ClassificationArticle & Society
File Size636 KB
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