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३२८ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालालजी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
ऐसा होने पर उत्तराध्ययनकार के शब्दों में
" सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को, जं बाहई सययं जंतुमेयं । दीहामयं विप्पक्को सत्थो, तो होइ अच्चंत सुहीकयत्थो ।। " १३
वह (साधक), जो जीव को सतत पीड़ा देते रहते हैं, उन दीर्घ रोगों से विप्रमुक्त हो जाता है । दीर्घ रोग से यहाँ उन आन्तरिक कषायात्मक ग्रन्थियों का सूचन है, जो मानव को सदा अस्वस्थ (आत्म-भाव से बहिःस्थ ) बनाये रखती हैं । जब ऐसा हो जाता है तो आत्मा अत्यन्त सुखमय हो जाती है । यह उसकी कृतकृत्यता की स्वर्णिम घड़ी है । तभी "दुःखे स्वनुद्विग्नमनाः" ऐसा जो गीता में कहा गया है, फलित होता है ।
यों आत्म-उल्लास में प्रहर्षित साधक की भावना में अप्रतिम दिव्यता का कितना सुन्दर समावेश हो जाता है, उत्तराध्ययनकार के निम्नांकित शब्दों से सुप्रकट है
"ते पासे सव्वसो छित्ता, निहंतूण उवायओ । मुक्कपासो लहुब्भूओ, विहरामि अहं मुणी ॥ अन्तोहिअयसंभूया, लया चिट्टइ गोयमा । फलेइ विसभक्खीणि, स उ उद्धरिया कहं ॥ तं लयं सव्वसो छित्ता, उद्धरिता समूलियं । विहरामि जहानायं मुक्कोमि विसभक्खणं ।। भवतण्हा लया वृत्ता, भीमा भीमफलोदया । तमुच्छित्त, जहानायं विहरामि महामुनी ॥ १४ साधक ! जो ( रागात्मक) पाश सांसारिक प्राणियों को बांधे रहते हैं, मैं उनका छेदन और निह्नन कर मुक्तपाश हो गया हूँ, हल्का हो गया हूँ, सानन्द विचरता हूँ ।
भव तृष्णा — सांसारिक वासना की विष- लता - हृदय में उद्भूत होने वाली विषय-वासना की श्रृंखला को मैं उच्छिन्न कर चुका हूँ । यही कारण है कि में सर्वथा आनन्दित एवं उल्लसित हूँ ।
इसी सन्दर्भ में सूत्रकृतांग में बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा है
"लद्धे कामे न पत्थेज्जा, विवेगे एवमाहिए।
आयरियाइ सिक्खेज्जा, बुद्धाणं अंतिए सया || १५
यदि काम-भोग सुलभ हों, आसानी से प्राप्त हों तो भी साधक को चाहिए कि वह उनकी वाञ्छा न करे । विवेक का ऐसा ही तकाजा है। इस प्रकार की निर्मल अन्तवृत्ति को संदीप्त करने के लिए साधक को चाहिए कि वह प्रबुद्ध जनों के सान्निध्य में रहकर ऐसी शिक्षा प्राप्त करे ।
इस प्रसंग में औपनिषदिक साहित्य के कुछ सन्दर्भ यहाँ उपस्थित किये जा रहे हैं, जो उपर्युक्त विवेचन से तुलनीय हैं। प्रश्नोपनिषद् में ब्रह्मलोक अर्थात् आत्म-साम्राज्य की अवाप्ति के प्रसंग में कहा है
"तेषामसौ विरजो ब्रह्मलोको न येषु जिह्ममनृतं न माया चेति । १६
अर्थात् जिनमें कुटिलता नहीं है, अनृत आचरण नहीं है, माया या प्रवञ्चना नहीं है, आत्मा का परम विशुद्ध, विराट् साम्राज्य उन्हीं को प्राप्त होता है ।
जब तक ऐसी स्थिति नहीं होती, तब तक उपनिषद् की भाषा में मनुष्य अविद्या में वर्तमान रहता है और उसका दुष्परिणाम भोगता रहता है । १७
अविद्या से उन्मुक्त होकर साधक किस प्रकार अमृतत्व पाता है, ब्रह्मानन्द का लाभ करता है, कठोपनिषद् में जो कहा है, मननीय है
“यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः । अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म
समश्नुते ॥
जो कामना प्रसूत लुब्ध मनोवृत्तियाँ हृदय में आश्रित हैं, जब वे छूट जाती हैं तो मर्त्य मरणधर्मा मानव अमृत - मरण से अतीत - परमात्म भाव में अधिष्ठित हो जाता है । वह ब्रह्मानन्द या परमात्म-भाव की अनुभूति की वरेण्य वेला है ।
अब हम उस प्रश्न पर आते हैं, जिसकी पहले स्थितप्रज्ञस्य का भाषा' श्लोक सन्दर्भ में चर्चा की है,
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