________________ वर्तमान को धरोहर के रुप में कुछ न कुछ दे जाता है और दुर्भाग्य हमारे वर्तमान के कि हमें अतित से नफरत, छलावा, साम्प्रदायिक भेदभाव की कटुता व उच्चाकांक्षा जो स्वार्थ से लिप्त है, प्राप्त हुई। यह विडम्बना है अथवा भाग्य की कमजोरी कि हमने अर्थ को अनर्थ के रुप में समझा व स्वीकारा "ब्रह्मचर्य" शब्द का अर्थ हम मात्र चरित्र पालन व संयम से ही जोड़ बैठे है, जबकि मन, वचन, कर्म, व्यवहार, वाणी, आचरण सभी में हम ब्रह्मत्व के दर्शन करें। समस्त जीव, चराचर में "ब्रह्म" का अनुभव करें, दर्शन करे और यह माने कि "सिया राम मय सब जग जानी"। सब में ब्रह्म व ब्रह्म में सब विद्यमान है, जब हमारी मानसिकता, वैचारिकता, ज्ञान इस निशकर्ष तक पहुँचेगा तब हम अपने आप को, जगत को और जगदीश को पहचानेगे। जैन धर्म में "ब्रह्मचर्य" शब्द को व्यापक व विस्तृत रुप में स्वीकार है, सत् आचरण, नियम पालन, संयम, सत्भाषी एवं ब्रह्म के अनुरुप आचरण करना 'ब्रह्मचर्य है। वैसे देश काल व समय के अनुसार शब्द का अर्थ व्यापक व विस्तृत होता रहा है और "ब्रह्मचर्य" शब्द भी इसी चक्र से प्रभावित हुआ है। एक सचा "ब्रह्मचारी" ब्रह्म के मर्म को समझते हुए आचार-विचार का पालन करते हुए समाज, धर्म, राष्ट्र एवं मानवता की सेवा में संलग्न रहकर "विश्व कुटुम्ब" की "राम राज्य" की कल्पना करता है। * संसार में रोग कभी नष्ट नहीं हुए कारण मनुष्य शरीर स्वतः रोगाय तन सम है। जो व्यक्ति पथ्या-पथ्या पालते नहीं है, रसेन्द्रत (जिहां) पर संयम नहीं रखते, सदाचारमय जीवन नहीं जीते, नियम-संयम बद्ध जीवन नहीं है, जिनका उन लोगों के पीछे रोग रुपी दानव (राक्षस) हमेशा लगा रहता है। 352 अपनी कोई भी वस्तु सर्वश्रेष्ठ हो तो गर्व होना सहज ही हैं किंतु यह सर्वनाश का कारण भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org