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'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' के अनुसार शरीर धर्मसाधन का महत्त्वपूर्ण निमित्त है। संयम से शरीर नीरोग रहता है । डाक्टरों का मत है कि अधिक खाने से और अधिक विषयभोग भोगने से अधिक लोग मरते बीमारी से कम मरते हैं। कामभोग ही अनेक बीमारियों का घर है । प्रायः देखा जाता है कि परस्त्रीगामी और वेश्यागामी को जननेन्द्रिय संबंधी रोग लग जाते हैं। शरीर अशक्त हो जाता है, जिससे वह रोगों का अवरोध नहीं कर पाता।
यतीन्द्र सूरि स्मारकग्रन्थ जैन-साधना एवं आचार
ब्रह्मचर्य पालन के लिए सात्विक अल्प आहार आवश्यक है। भगवान् बुद्ध ने भी कहा है कि 'एक बार खाने वाला महात्मा, दो बार खाने वाला बुद्धिमान और दिन भर खाने वाला पशु है।' ब्रह्मचारी का आहार कैसा होना चाहिये इस विषय में ओघनिर्युक्ति में उल्लेख है
हियाहारी मियाहारी, अप्पाहारी य जे नरा ।
न ते विज्जाभिगच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छंगा ।।
जो हित मित और अल्प आहार करनेवाले हैं, उन्हें डाक्टर के पास नहीं जाना पड़ता । संयमी शरीर से भी पुण्य कमाता है और निर्जरा का भी उपार्जन करता है । तुलसीदासजी ने भी
कहा
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तुलसी काया खेत है, मनसा भया किसान । पुण्य पाप दोउ बीज है, बुवै सो लुणे निदान ।।
यह शरीर खेत है और मन किसान है, इसमें ब्रह्मचर्य, संमय या अब्रहम का जैसा पुण्य-पाप का बीज बोओगो वैसा ही फल मिलेगा। संयम साधन की वस्तुओं कटासन, चारवला, माला आदि का संयम रखें और उन पर ममत्व न रखें इसे उपकरण - संयम कहते हैं।
संयम-पालकों की दृष्टि से भी संयम के चार भेद हैं। मोम जैसा, लाख जैसा, लकड़ी जैसा और मिट्टी के गोले जैसा । उत्तम संयमी मिट्टी के गोले के समान संयम में दृढ़ रहता है। कांधला की एक घटना है। एक मुनि विहार करते हुए सूर्यास्त के समय वहाँ पहुँचे। एक हलवाई दुकान बंद करके जा रहा था। मुनि ने उसे छप्पर के नीचे रात में रहने के लिए पूछा । हलवाई ने कहा कि मैं घर से वापस आकर आज्ञा दूँगा। मुनि ने कहा- कोई बात नहीं आप घर होकर आ जायें तब तक मैं यहीं खड़ा हूँ । हलवाई
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घर जाकर भूल गया और मुनि रात भर वहीं खड़े रहे। प्रातः मुनि को वहाँ खड़ा देखकर हलवाई मुनि के चरणों में गिर पड़ा। मुनि की संयम में दृढ़ता से कांधला जैनियों में प्रसिद्ध हो गया ।
निर्ग्रन्थों की अपेक्षा से संयम के पाँच भेद हैं। जो मूलगुण और उत्तरगुण में परिपूर्ण न होने पर भी वीतराग-प्रणीत आगम से कभी अस्थिर नहीं होते, उन्हें पुलाक संयमी कहते है । जो शरीर की विभूषा करे, सिद्धि यश कीर्ति चाहे, सुखाकांक्षी हो और अतिचार दोषों से युक्त हो वह बकुश संयमी होता है। इंद्रियों व मंद कषाय के वश में होकर जो उत्तरगुण में दोष लगाये, विषयभोग में रुचि रखे वह कुशील संयमी, जिसके राग - द्वेष इतने मंद हों कि श्रेणी चढ़ते अन्तर्मुहूर्त में केवली होने वाला हो, विषयों से सर्वथा मुक्त और पूर्ण जाग्रत हो वह निर्ग्रन्थ संयमी और जो
जाणि सव्वहि जीव जग जागा,
सव्वहि विषय विलास विरागा ।
जो सर्व जीवों की सर्व पर्यायों को जानते हों, जो सर्व विषय - विलास से मुक्त हो चुके हों, वे सर्वज्ञ स्नातक संयमी कहलाते हैं।
मार्ग आदि देखकर प्रवृत्ति करने को प्रेक्ष्य संयम कहते हैं। अशुभ को रोककर शुभ में प्रवृत्ति करने को उपेक्ष्य संयम कहते हैं। संयम में सहायक वस्त्र, पात्र आदि के अतिरिक्त जो अन्य सबका त्याग करे, उसे असहाय संयम कहते हैं । मार्ग आदि को सविधि पूज कर काम में ले उसे प्रमृज्य संयम कहते हैं।
हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह इन पाँचों अस्त्रवों का त्याग, पाँच इंद्रियों पर विजय, चार कषायों का त्याग और तीनों योगों का संयम (मन, वचन काया का) यों संगम के कुल सत्रह भेद होते है।
निर्दोष संयम पालने के लिए कछुए का दृष्टान्त बहुत ही उपयोगी है। उसे जब भी कुछ खतरा लगता तब वह तुरन्त अपने सभी अंगों को संकुचित कर खोल में छिपा लेता है, खतरा टल जाने पर वापस बाहर निकाल लेता है। इसी तरह साधक को भी जब-जब आवश्यक हो, तब-तब इंद्रियों और मन को गुप्ति रूपी खोल में गोपित कर लेना चाहिये ।
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