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शिवप्रसाद
वि० सं० १२३८ / ई० सन् १९८२ ], नेमिनाथचरित [ रचनाकाल वि० सं० मतपरीक्षापंचाशत; स्याद्वादश्नाकर पर लघु टीका आदि ग्रन्थों की रचना की है ।
हेमचन्द्रसूरि' - आप आचार्य अजितदेवसूरि के शिष्य एवं आचार्य मुनिचन्द्रसूरि के प्रशिष्य थे । इन्होंने नेमिनाभेयकाव्य की रचना की, जिसका संशोधन महाकवि श्रीपाल ने किया । श्रीपाल जयसिंह सिद्धराज के दरबार का प्रमुख कवि था ।
हरिभद्रसूरि - इनका जन्म और दीक्षादि प्रसंग जयसिंह सिद्धराज के काल में उन्हों के राज्य प्रदेश में हुआ, ऐसा माना जाता है । ये प्रायः अगहिलवाड़ में ही रहा करते थे । सिद्धराज और कुमारपाल के मन्त्री श्रीपाल को प्रार्थना पर इन्होंने संस्कृत - प्राकृत और अपभ्रंश भाषा में चौबीस तीर्थङ्करों के चरित्र की रचना की। इनमें से चन्द्रप्रभ, मल्लिनाथ और नेमिनाथ का चरित्र ही आज उपलब्ध हैं। तीनों ग्रन्थ २४००० श्लोक प्रमाण हैं । यदि एक तीर्थङ्कर का चरित्र ८००० श्लोक माना जाये तो तो २४ तीर्थंङ्करों का चरित्र कुल दो लाख श्लोक के लगभग रहा होगा, ऐसा अनुमान किया जाता है । नेमिनाथचरिउ को प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इस ग्रन्थ की रचना वि० सं० १२१६ में हुई थी । अपने ग्रन्थों के अन्त में इन्होंने जो प्रशस्ति दी है, उसमें इनके गुरुपरम्परा का भी उल्लेख है जिसके अनुसार वर्धमान महावीर स्वामी के तीर्थ में कोटिक गण और वज्र शाखा में चन्द्रकुल के वडगच्छ के अन्तर्गत जिनचन्द्रसूरि हुए । उनके दो शिष्य थे, आम्रदेवसूरि और श्रीचन्द्रसूरि । इन्हीं श्रीचन्द्रसूरि के शिष्य थे आचार्य हरिभद्रसूरि जिन्हें आम्र देवसूरि ने अपने पट्ट पर स्थापित किया ।
सोमप्रभसूर - आचार्य अजितदेवसूरि के प्रशिष्य एवं आचार्य विजयसिंहसूरि के शिष्य आचार्य सोमप्रभसूरि चौलुक्य नरेश कुमारपाल [वि० सं० १९९९-१२२९ / ई० सन् १९४२-११७२ ] के समकालीन थे । इन्होंने वि० सं० १२४१ / ई० सन् १९८४ में कुमारपाल की मृत्यु के १२ वर्ष पश्चात् अहिलवाड़ में 'कुमारपाल प्रतिबोध" नामक ग्रन्थ की रचना की । इस ग्रन्थ में हेमचन्द्रसूरि और कुमारपाल सम्बन्धी वर्णित तथ्य प्रामाणिक माने जाते हैं । इनकी अन्य रचनाओं में “सुमतिनाथ - चरित", "सूक्तमुक्तावली" और "सिन्दूरप्रकरण" के नाम मिलते हैं ।
नेमिचन्द्रसूरि-ये आम्रदेवसूरि [ आख्यानकमणिकोषवृत्ति के रचयिता ] के शिष्य थे । इन्होंने " प्रवचनसारोद्धार" नामक दार्शनिक ग्रन्थ जो ११९९ श्लोक प्रमाण है, की रचना की ।
१२३३ / ई० सन् ११७६],
अन्य गच्छों के समान वडगच्छ से भी अनेक शाखायें एवं प्रशाखायें अस्तित्व में आयीं । वि० सं० ११४९ में यशोदेव - नेमिचन्द्र के शिष्य और मुनिचन्द्रसूरि के ज्येष्ठ गुरुभ्राता आचार्य चन्द्रप्रभ
१. देसाई, मोहनलाल दलीचन्द - पूर्वोक्त पृ० ० ३५ ।
२. गांधी लालचन्द भगवानदास - "ऐतिहासिक जैन लेखो"
पृ० १३३ ।
३. वही पृ० १३३ ॥
४. वही पृ० १३४ ॥
५. मुनि पुण्य विजय संपा० आख्यानकमणिकोषवृत्ति, प्रस्तावना पृ० ८ ।
६. देसाई, पूर्वोक्त पृ० २७५ ।
७. मुनिपुण्यविजय, पूर्वोक्त पृ० ८ ।
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