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________________ आचार्य ज्ञान मुनि कोई कितना ही विचारों को छिपाने का प्रयास या कोशिश करे फिर भी उसकी इन्द्रियों पर वे भाव उभर ही जाते हैं। बशर्ते कि सामने वाला इन्सान यदि बुद्धिमान हो तो स्पष्ट अनुमान लगा लेता है कि इसमें भीतर में क्या विचार चल रहे हैं। यदि इन्सान को भीतर में क्रोध आ रहा है तो उसे वह कितना भी दबाने का प्रयास करे तो भी वह चेहरे पर किसी न किसी रूप में आ ही जाता है। इसके लिए कषायों की परिभाषाएं सविस्तार जानना अपेक्षित है। इसके साथ ही गुरु गम से ज्ञान समझना जरुरी है। दवाएं कितनी भी हो पर डाक्टरी परामर्श, निर्देश आवश्यक है। वही स्थिति गुरु की है। पुस्तकीय ज्ञान कितना ही क्यों न हो तथापि उसे सही ढंग से समझने के लिए योग्य गुरु की आवश्यकता रहती है। बाहर से भीतर के विचारों को समझने के लिए कई नीतिकारों ने भी कहा है आकारैइंगितगत्या, चेष्टया भाषणेन च। बाहर के आकार : बताते विचार नैत्रवक्त्र विकारण, लक्ष्यतेन्तर्गतं मनः।। इन्सान के बाहरी आकार, इंगित, संकेत, चेष्टा एवं बोलना हरेक मनुष्य के पास तीन प्रकार के योग होते हैं- मन, तथा आँखों एवं चेहरे की क्रियाएँ संकेत से उसके भीतर के वचन और काया। इन योगों का कार्य मुख्यतः सोचना, बोलना विचारों को समझा जा सकता है। और करना है। ये तीनों योग उसकी आत्मा को भीतर से बाहर तक जोड़ने का काम करते हैं। मन से जो भी चिन्तन किया जाता उत्तराध्ययन सूत्र के माध्यम से भगवान महावीर ने गुरु के है, उसका असर वचन, काया में आए बिना नहीं रहता। इसलिए प्रति शिष्य के विनय को स्पष्ट करते हुए कहा हैमनस्विदों ने मन को नियंत्रित करने एवं वश में करने की बात आणानिद्दस करे, गुरुण मुनवाए कारए। कही है। मन के नियंत्रित होने पर वचन और काया तो स्वतः ही इंगियागार संपन्ने, से विणिएत्ति वुच्चई।। नियंत्रित हो जाते हैं। जैन शास्त्रों में भी मन को नियंत्रित करने आज्ञा और निर्देश के अनुसार चलने वाला, गुरु के पास की बात महत्वपूर्ण रूप से प्रतिपादित की गई है। मन भीतर में रहने वाला, इंगित और आकार से सम्पन्न साधक विनीत है जो कि आत्मा से सीधा संस्पर्शित है। यह मन दो प्रकार का कहलाता है। बाहर के आँख, मुख और हाथ के ईशारे से समझने बतलाया है- द्रव्यमन और भावमन। द्रव्यमन तो पुद्गलात्मक वाला विनीत शिष्य कहलाता है और कई बार बिना बाहरी हाथ, होता है, भावमन विचारात्मक होता है। विचार स्फुलिग एक तरह पैर, आँख आदि हिलाए गुरु के मन में उठने वाले विचारों को से आत्मा के ही पर्याय हैं। भीतर से उठने वाले ये स्फुलिंग, समझ जाता है. वह पर्ण समर्पित विनीत शिष्य होता है। यह तभी इन्सान को बाहर-भीतर प्रभावित करते हैं। जिस प्रकार घड़े के संभव है जब गुरु शिष्य के मन में परस्पर पूरी तरह तदाकारता भीतर यदि पानी ठंडा हो तो बाहर ठंडापन लगेगा और यदि पानी हो। जिस प्रकार माँ का बेटे के प्रति होता है। बेटा दस हजार के स्थान पर जलती हुई लकड़ी हो तो बाहर भी गर्माहट आए कि० मी० दर है, वहाँ भी अगर उसका ऐक्सीडेंट हो जाता है बिना नहीं रहेगी। इसलिए शास्त्रकारों ने कहा है- "जहां अंतोतहा तो माँ का मन यहाँ उचट जाता है। वह बच्चे पर आये संकट बाहिं'' इन्सान जैसा अन्दर में होता है वैसा ही बाहर भी आने को भांप जाती है। यह भीतर के टुंगित/एक्शन हैं। लगता है। इसलिए बाहर को ठीक करने के लिए भीतर को ठीक वासिलिएव एवं कामिनिएव ने इस संदर्भ में कई प्रयोग करना आवश्यक है। किये हैं। एक वैज्ञानिक कुछ चूहों को लेकर समुद्र की गहराइयों जो विचार व्यक्ति के भीतर में चल रहे हैं उसका शरीर में गया। जहाँ पर वाय तरंगे/ध्वनि तरंगें भी नहीं पहुँच सके। पर किसी न किसी रूप में असर आए बिना नहीं रहता। भले ऊपर एक वैज्ञानिक उन चहों की माँ के सिर पर इलेक्ट्रोड ० अष्टदशी / 1860 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211465
Book TitleBahar ke Akar Yatate Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanmuni
PublisherZ_Ashtdashi_012049.pdf
Publication Year2008
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size786 KB
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