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जैन विद्या के आयाम खण्ड - ६
या वासना उत्पन्न होने की सम्भावना उठ खड़ी होती है अतः साधना-मार्ग के पथिक को सदैव ही जाग्रत रहते हुए, विषय सेवनरूप छिद्रों से आने वाले कर्मास्रव या विकार से अपनी रक्षा करनी है। सूत्रकृतांगसूत्र में कहा गया है कि कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखे। मन, वाणी, शरीर और इन्द्रिय व्यापारों का संयमन ही साधना का लक्ष्य माना गया है। सच्चे साधक की व्याख्या करते हुए दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जो सूत्र तथा उसके रहस्य को जानकर हाथ, पैर, वाणी तथा इन्द्रियों का यथार्थ संयम रखता है (अर्थात् सन्मार्ग में विवेकपूर्वक लगता है), अध्यात्म रस में ही जो मस्त रहता है और अपनी आत्मा को समाधि में लगाता है वही सच्चा साधक है।
निर्जरा का अर्थ
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आत्मा के साथ कर्म-पुद्गल का सम्बन्ध होना बन्ध है और आत्मा से कर्मवर्गणा का अलग होना निर्जरा है। संवर नवीन आने वाले कर्म-1 - पुद्गल का रोकना है, परन्तु मात्र संवर से निर्वाण की प्राप्ति सम्भव नहीं । उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि जैसे किसी बड़े तालाब के जल स्रोतों (पानी के आगमन के द्वारों) को बन्द कर दिया जाए और उसके अन्दर रहे हुए जल को उलीचा जाय तथा ताप से सुखाया जाए तो वह विस्तीर्ण तालाब भी सूख जायेगा। प्रस्तुत रूपक में आत्मा ही सरोवर है, कर्म पानी है, कर्म का आस्रव ही पानी का आगमन है उस पानी के आगमन के द्वारों को निरुद्ध कर देना संवर है और पानी का उलीचना और सुखाना निर्जरा है। यह रूपक यह बताता है कि संवर से नये कर्म रूपी जल का आगमन (आव) तो रुक जाता है लेकिन पूर्व में बन्धे हुए, सत्तारूप कर्मों का जल तो आत्मा रूपी तालाब में शेष रहा हुआ है जिसे सुखाना है। यह कर्म रूपी जल को सुखाना निर्जरा है।
द्रव्य और भाव निर्जरा
निर्जरा शब्द का अर्थ है पूर्णत: जर्जरित कर देना, झाड़ देना अर्थात् आत्मतत्त्व से कर्म-पुद्गल का अलग हो जाना अथवा अलग कर देना निर्जरा है। जैनाचार्यों ने यह निर्जरा दो प्रकार की मानी है। आत्मा की वह चैतसिक अवस्था जिसके द्वारा कर्म-पुट्रल अपना फल देकर अलग हो जाते हैं, भाव निर्जरा कही जाती है। भाव निर्जरा आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था है, जिसके कारण कर्म-परमाणु आत्मा से अलग हो जाते हैं यही कर्म-परमाणुओं का आत्मा से पृथक्करण द्रव्य निर्जरा है। भाव निर्जरा कारण रूप है और द्रव्य निर्जरा कार्य रूप है।
सकाम और अकाम निर्जरा
पुनः निर्जरा के दो अन्य प्रकार भी माने गये हैं- १. कर्म जितनी काल मर्यादा ( अवधिकाल) के साथ बँधा है, उसके समाप्त
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हो जाने पर अपना विपाक (फल) देकर आत्मा से अलग हो जाता है, यह यथाकाल निर्जरा कही जाती है। इसे सविपाक, अकाम और अनौपक्रमिक निर्जरा भी कहते हैं। यह सविपाक निर्जरा इसलिए कही जाती है कि इसमें कर्म अपना विपाक देकर अलग होता है अर्थात् इसमें फलोदय (विपाकोदय) होता है इसे अकाम निर्जरा इस आधार पर कहा गया है कि इसमें कर्म के अलग करने में व्यक्ति के संकल्प का तत्त्व नहीं होता है। उपक्रम शब्द प्रयास के अर्थ में आता है, इसमें वैयक्तिक प्रयास का अभाव होता है, अतः अनौपक्रमिक भी कहा जाता है।
२. दूसरे जब तपस्या के माध्यम से कर्मों को उनके फल देने के समय के पूर्व अर्थात् उनकी काल स्थिति परिपक्व होने के पहिले ही प्रदेशोदय के द्वारा भोगकर बलात् अलग-अलग कर दिया जाता है तो ऐसी निर्जरा को सकाम निर्जरा कहा जाता है, क्योंकि निर्जरित होने में समय का तत्त्व अपनी स्थिति को पूरी नहीं करता है। इसे अविपाक निर्जरा भी कहते हैं, क्योंकि इसमें विपाकोदय या फलोदय नहीं होता है, मात्र प्रदेशोदय होता है।
विपाकोदय और प्रदेशोदय में क्या अन्तर है, इसे निम्र उदाहरण से समझा जा सकता है। जब क्लोरोफार्म सुंघाकर किसी व्यक्ति की चीर-फाड़ की जाती है तो उसमें उसे असातावेदनीय ( दुःखानुभूति) नामक कर्म का प्रदेशोदय होता है लेकिन विपाकोदय नहीं होता है। उसमें दु:खद वेदना के तथ्य तो उपस्थित होते हैं लेकिन दुःखद वेदना की अनुभूति नहीं है । इसी प्रकार प्रदेशोदय कर्म के फल का तथ्य तो उपस्थित हो जाता है, लेकिन उसकी फलानुभूति नहीं होती है। अतः यह अविपाक निर्जरा कही जाती है। इसे सकाम निर्जरा भी कहा जाता है, क्योंकि इसमें कर्म - परमाणुओं को आत्मा से अलग करने का संकल्प होता है। यह औपक्रमिक निर्जरा भी कही जाती है क्योंकि इसमें उपक्रम या प्रयास होता है। प्रयास पूर्वक, तैयारी सहित, कर्मवर्गणा के पुगलों को आत्मा से अलग किया जाता है। यह कर्मों को निर्जरित (क्षय) करने का कृत्रिम प्रकार है।
अनौपक्रमिक या सविपाक निर्जरा अनिच्छापूर्वक, अशान्त एवं व्याकुल चित्तवृत्ति से पूर्व संचित कर्म के प्रतिफलों का सहन करना है जबकि अविपाक निर्जरा इच्छापूर्वक समभावों से जीवन की आई हुई परिस्थितियों का मुकाबला करना है।
जैन साधना में औपक्रमिक निर्जरा का स्थान
जैन साधना की दृष्टि से निर्जरा का पहला प्रकार जिसे सविपाक या अनौपक्रमिक निर्जरा कहते हैं, अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं है। यह पहला प्रकार साधना के क्षेत्र में ही नहीं आता है, क्योंकि कर्मों के बन्ध और निर्जरा का यह क्रम तो सतत् रूप से चला आ रहा है। हम प्रतिक्षण पुराने कर्मों की निर्जरा करते रहते हैं लेकिन जब तक नवीन कर्मों का सृजन समाप्त नहीं होता ऐसी निर्जरा से सापेक्षिक रूप में कोई लाभ नहीं होता । जैसे कोई व्यक्ति पुराने ऋण का भुगतान तो करता रहे, लेकिन नवीन ऋण भी लेता रहे तो वह ऋण मुक्त नहीं होता है।
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