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________________ थे। उन्होंने जैनधर्मके अन्तर्गत एक आध्यात्मिक पंथकी स्थापना की, और अनेक ग्रंथोंकी रचना की थी। उनके पंथको पहिले 'अध्यात्मी पंथ' अथवा 'बनारसी मत' कहा जाता था, बादमें वह 'तेरह पंथ' के नामसे प्रसिद्ध हुआ था । उस सुधारवादी मतके कारण उस कालके दिगम्बर सम्प्रदायी चैत्यवासी भट्टारकोंकी प्रतिष्ठामें पर्याप्त कमी हुई थी। पं. बनारसोदास हिन्दीके जैन ग्रंथकारोंमें सर्वोपरि माने जाते हैं। उनकी ख्याति उनकी धार्मिक विद्वत्तासे भी अधिक उनके ग्रन्थोंके कारण है। उनकी रचनाओंमें 'नाटक समयसार' और 'अर्थ कथानक' अधिक प्रसिद्ध हैं। 'नाटक समयसार' अध्यात्म और वेदान्तकी एक महत्त्वपूर्ण रचना है। इसका प्रचार श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें है। 'अर्ध कथानक' उनका आत्म-चरित्र है, जो उनके जीवनके प्रथम अर्ध भागसे संबंधित है। यह भी अपने विषयकी महत्त्वपूर्ण रचना है। उनकी दो अन्य रचनाएँ 'बनारसी नाम माला' और 'बनारसी विलास हैं। ये सब ग्रंथ पद्यात्मक हैं। इनके अतिरिक्त उनकी एक गद्य रचना 'परमार्थ वचनिका' भी है। यह जैन साहित्यकी आरंभिक हिन्दी गद्य रचनाओंमेंसे है, अतः इसका भी अपना महत्त्व है। औरंगजेबी शासनका दुष्परिणाम-मुगल सम्राट अकबर, जहाँगीर और शाहजहाँके शासनकालमें जैनधर्मकी जितनी उन्नति हुई थी, औरंगजेबके शासनमें उससे अधिक अवनति हो गयी थी। उस कालमें व्रजमंडलके गैर मुसलिम धर्म-सम्प्रदायोंके सभी देव-स्थान नष्ट कर दिये गये थे । उक्त धर्म-सम्प्रदायोंके अधिकांश आचार्य, संत, महात्मा, विद्वान् और गुणी-जन व्रजमंडल छोड़कर हिन्दू राज्योंमें आकर बस गये थे। उस कालमें जैनधर्मकी स्थिति भी अत्यन्त शिथिल और प्रभावशून्य हो गयी थी। मथुराके प्रसिद्ध जैनकेन्द्र कंकाली टीला और चौरासीमेंसे कंकाली टीला तो पहिले ही वीरान-सा था, फिर चौरासीका सिद्ध क्षेत्र भी महत्त्वशून्य हो गया । बटेश्वर और आगरा केन्द्रोंकी भी तब प्रतिष्ठा भंग हो गयी थी। लकी स्थिति-औरंगजेबी शासनकालके बादसे अंग्रजी राज्यकी स्थापना तक समस्त व्रजमंडलमें जैनधर्मको स्थिति बिगड़ी हुई रही थी । अंग्रेज़ी शासनकालमें मथुराके सेठों द्वारा जैनधर्मको बड़ा संरक्षण मिला था। इस घराने के प्रतिष्ठाता सेठ मनीराम दिगम्बर जैन श्रावक थे। वे पहिले ग्वालियर राज्यके दानाधिकारी श्रीगोकुलदास पारिखके एक साधारण मुनीम थे। जब पारिखजी अपने साथ करोड़ोंकी धर्मादा सम्पत्ति लेकर उससे व्रजमें मंदिरादिका निर्माण कराने सं० 1870 में मथुरा गये थे, तब मनीराम मनीम भी उनके साथ थे । पारिखजी अपनी मृत्युसे पहिले मनीरामजीके ज्येष्ठ पुत्र लक्ष्मीचन्दको अपना उत्तराधिकारी बना गये थे। उनके बाद मनीराम लक्ष्मीचन्द पारिखजीकी विपुल सम्पत्तिके स्वामी हुए। उन्होंने व्यापार द्वारा उस सम्पत्तिको खूब बढ़ाया और विविध धार्मिक कार्योंमें उसका सदुपयोग किया। उन्होंने मथुराके 'चौरासी' सिद्ध क्षेत्रका जीर्णोद्धार कर वहाँ जैन मन्दिरका निर्माण कराया था। उसमें उन्होंने अष्टम तीर्थंकर भगवान् चन्द्रप्रभकी मूर्ति प्रतिष्ठित कर दिगम्बर विधिके अनुसार उनकी पूजाकी यथोचित व्यवस्था की थी। बादमें सेठ लक्ष्मीचन्दके पुत्र रघुनाथदासने वहाँ द्वितीय तीर्थंकर भगवान् अजितनाथको संगमरमर प्रतिमाको प्रतिष्ठित किया था। मथुगमंडलके आधुनिक जैन देवालयोंमें यह मन्दिर सबसे अधिक प्रसिद्ध है । यहाँ पर कार्तिक कृ. 2 से कृ० 8 तक प्रति वर्ष एक बड़ा उत्सव होता है, जिसमें रथयात्राका भी आयोजन किया जाता है। वर्तमान स्थिति-इस समय मथुरामें जैनधर्मका प्रसिद्ध केन्द्र चौरासी स्थित जम्बूस्वामीका सिद्ध क्षेत्र ही है। यहाँ पर 'अखिल भारतीय दिगम्बर जैन-संघ' का केन्द्रीय कार्यालय है। साप्ताहिक-पत्र 'जैन ३२ : अगरचन्द नाहटा अभिनन्दन-ग्रन्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211441
Book TitlePrachin Vajramandal me Jain Dharm ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudayal Bhital
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & History
File Size846 KB
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