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________________ उस कालके ग्रंथोंमेंसे जों नथ ब्रजमंडलमें रचे गये थे, उनका प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं है। ऐसा अनुमान है संस्कृत, शौरसेनी प्राकृत और शौरसेनी अपभ्रंशमें कुछ ग्रंथ अवश्य रचे गये होंगे, जो कालके प्रवाहमें नष्ट हो गये। कालांतरमें जो प्रथ व्रजभाषामें रचे गये थे, वे अब भी विद्यमान हैं, और उनसे व्रजमंडल के जैन विद्वानोंकी साहित्य-साधनापर अच्छा प्रकाश पड़ता है। हूणों का आक्रमण-मौर्य-शुग कालके पहिलेसे लेकर गुप्त शासनके बाद तक, अर्थात् एक सहस्रसे अधिक काल तक प्राचीन व्रजमंडलमें जैनधर्मसे संबंधित इमारतें प्रायः अक्षुण्ण रही थीं। उस कालमें जैन धर्मको उत्तरोत्तर उन्नति करता रहा था । गुप्त शासनके अंतिम कालमें जब असभ्य हूणोंने प्राचीन व्रजमंडल पर आक्रमण किया, तब उन्होंने यहाँकी अन्य इमारतोंके साथ ही साथ जैन इमारतोंको भी बड़ी हानि पहँचाई थी। यहाँका सुप्रसिद्ध देव निर्मित स्तूप उस कालमें क्षतिग्रस्त हो गया था, और अन्य स्तुप एवं मंदिर-देवालय भी नष्टप्राय हो गये थे । देवस्थानोंका जीर्णोद्धार और धार्मिक स्थितिमें सुधार-हूणोंके आक्रमणसे प्राचीन व्रजमंडलकी जो इमारतें क्षतिग्रस्त हो गई थीं, उनके जीर्णोद्धारका श्रेय जिन श्रद्धालु महानुभावोंको है, उनमें वप्पभट्टि सूरिका नाम उल्लेखनीय है । 'विविध तीर्थकल्प' से ज्ञात होता है कि वप्पट्टि सूरिने अपने शिष्य ग्वालियर नरेश आमराजसे सं० 826 वि० में मथुरा तीर्थका जीर्णोद्धार कराया था। उसी समय ईंटोंसे बना प्राचीन 'देवनिर्मित स्तुप', जो उस समय जीर्णावस्थामें था, पत्थरोंसे पुननिर्मित किया गया और उसमें भ० पार्श्वनाथजीके जिनालय एवं भ० महावीरजीके बिम्ब की स्थापना की गई थी। वप्पट्टि सरिने मथुरामें एक मंदिरका निर्माण भी कराया था, जो यहाँपर श्वेतांबर संप्रदायका सर्वप्रथम देवालय था। बौद्धधर्म के प्रभावहीन और फिर समाप्त हो जानेपर मथरामंडल में जो धर्म अच्छी स्थितिमें हो गये थे, उनमें जैनधर्म भी था। 10 वीं, 11 वीं और 12 वीं शताब्दियोंमें यहाँपर जैनधर्मकी पर्याप्त उन्नति होने के प्रमाण मिलते हैं। उस काल में मथुरा स्थित कंकाली टीलाके जैन केन्द्र में अनेक मंदिर-देवालयोंका निर्माण हुआ था और उनमें तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ प्रतिष्ठित की गई थी। उस कालकी अनेक लेखांकित जैन मूर्तियाँ कंकाली टीलेकी खुदाईमें प्राप्त हुई है । मथुराके अतिरिक्त प्राचीन शौरिपुर (बटेश्वर, जिला आगरा) भी उस कालमें जैनधर्मका एक अच्छा केन्द्र हो गया था और वहाँ प्रचुर संख्यामें जैन मंदिरोंका निर्माण हुआ था। महमूद गज़नवीके आक्रमणका दुष्परिणाम-सं० 1074 में जब महमूद गज़नवीने मथुरापर भीषण आक्रमण किया था, तब यहाँके धार्मिक स्थानोंकी बड़ी हानि हुई थी। कंकाली टीलाका सुप्रसिद्ध 'देवनिर्मित स्तूप' भी उसी कालमें आक्रमणकारियोंने नष्ट कर दिया था, क्योंकि उसका उल्लेख फिर नहीं मिलता है। ऐसा मालूम होता है, उक्त प्राचीन स्तूपके अतिरिक्त कंकाली टीलाके अन्य जैन देवस्थानोंकी बहत अधिक क्षति नहीं हई थी, क्योंकि उससे कुछ समय पर्व ही वहाँ प्रतिष्ठित की गई जैन प्रतिमाएँ अक्षण्ण उपलब्ध हुई है । संभव है, जैन श्रावकों द्वारा उस समय वे किसी सुरक्षित स्थानपर पहुँचा दी गई हों, और बाद में स्थिति ठीक होनेपर उन्हें प्रतिष्ठित किया गया हो। महमूद गजनवीके आक्रमण कालसे दिल्लीके सुल्तानोंका शासन आरंभ होने तक अर्थात् 11 वीं से 13 वीं शतियों तक मथुरामंडलपर राजपूत राजाओंका शासनाधिकार था। उस काल में यहाँ जैनधर्मकी स्थिति कुछ ठीक रही थी। उसके पश्चात वैष्णव संप्रदायों का अधिक प्रचार होनेसे जैनधर्म शिथिल होने लगा था। इतिहास और पुरातत्त्व : २९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211441
Book TitlePrachin Vajramandal me Jain Dharm ka Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhudayal Bhital
PublisherZ_Nahta_Bandhu_Abhinandan_Granth_012007.pdf
Publication Year
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & History
File Size846 KB
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