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प्राचीन भारतीय मूर्तिकला को मेवाड़ की देन | २०६ डालते हैं । आड़ में उस समय ताँबे का प्रयोग होता है - ऐसे ताम्रपरशु व चाकू मिले हैं और साथ में तांबा गलाने की भट्टी भी । ताँबा तो इस क्षेत्र की समीपवर्ती खानों से प्राप्त किया जाता होगा ।
आयड़ की खुदाई से मिट्टी की बनी पशुओं की आकृतियां तो मिली हैं परन्तु पुरुषाकृतियां या प्रस्तर प्रतिमाएं अद्यावधि अज्ञात हैं। मेवाड़ में शुग काल से पूर्व (ईसा पूर्व प्रथम द्वितीय शती) की कोई मूर्ति अभी तक प्राप्त नहीं हुई है। चित्तौड़ के पास 'शिवि' जनपद का प्रख्यात केन्द्र 'मध्यमिका' (अर्थात् 'नगरी' ) इस सम्बन्ध में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है। खुदाई द्वारा यहाँ शुगयुगीन मृण्मूर्तियां मिली हैं- इनमें से एक फलक पर खड़ी देवी वसुधारा की है जिसने अपने एक हाथ में 'मत्स्य' (मछली) धारण कर रखा है। इस प्रकार की मृण्मूर्तियां मथुरा क्षेत्र और राजस्थान में रैढ़ (टोंक के पास ) नामक स्थानों पर पर्याप्त संख्या में प्राप्त हुई हैं। नगरी की इस मृण्मूर्ति में भी मथुरा कला का प्रभाव झलकता है और यह सिद्ध करता है कि मौर्यकाल के बाद इस क्षेत्र के कलाकार भारतीय कला केन्द्रों से सम्बन्ध स्थापित कर रहे थे ।
नगरी में उस समय 'भागवत धर्म' को विशेष महत्व प्राप्त था। यहां अश्वमेध यज्ञ करने वाले एक 'सर्वतात' नामक राजा ने 'नारायणवाटिका' हेतु विशाल परकोटे का निर्माण करा तत्सम्बन्धी लेख को इस प्रस्तर -परकोटे की शिलाओं पर कई स्थानों पर उत्कीर्ण भी कराया था। एक शिलालेख तो आज भी इस परकोटे का अंग बना हुआ है। और अन्य खण्ड उदयपुर के 'प्रताप संग्रहालय' में सुरक्षित हैं। इस 'शिला- प्राकार' के बीच संकर्षण- वासुदेव की पूजा होती थी यद्यपि उस समय की कोई भी कृष्ण-बलराम प्रतिमा अभी तक नगरी से प्राप्त नहीं हुई है। कुछ विद्वानों का यह विचार है कि मध्यमिका की नारायणवाटिका में लकड़ी की मूर्तियाँ रही होंगी जो कालान्तर में नष्ट हो गई हों या जाकर पूजान्तर्गत हों। इस सम्बन्ध में यह स्मरण रहे कि शुंग मथुरा एवं विदिशा क्षेत्र में यक्ष-यक्षियों की पुरुषाकार मूर्तियां
यहां किसी स्थण्डिल पर " आयागपट्ट" के रूप में उकेरी काल में प्रस्तर प्रतिमाएँ पर्याप्त संख्या में बनने लगी थीं। शुंग काल में बनायी गयीं और प्रायः प्रत्येक गांव में पूजी जाने लगी थीं। अपरंच, इसी युग में उष्णीषी 'बलराम' की
स्वतंत्र मूर्तियां भी विद्यमान थीं। ऐसी एक विशाल प्रतिमा लखनऊ के राज्य संग्रहालय में सुरक्षित है। जब मेवाड़ के सूत्रधार नगरी में इतने बड़े प्रस्तर परकोटे का निर्माण करा सकते थे और पत्थर सुलभ था तो लकड़ी की मूर्तियां बनवाने का कोई तात्पर्य समझ में नहीं आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि मध्यमिका की नारायणवाटिका में प्रस्तर प्रतिमाएं अवश्य रही होंगी जो मुसलमानी आक्रामकों के द्वारा खण्डित कर दी गई होंगी । नगरी पर यवनों का आक्रमण हुआ और बाद में मुसलमानों ने भी पर्याप्त ध्वंस कार्य किया था। इसके तनिक बाद के मथुरा के 'मोरा कुएँ' वाले शिलालेख में वृष्णिवीरों की मूर्तियों का उल्लेख किया गया है वहां कुछ ऐसी मूर्तियां भी सहितावस्था में मिली है जो मथुरा संग्रहालय में सुरक्षित हैं। नगरी के शुंगकालीन शिलालेख में 'संकर्षण - वासुदेवाभ्यां पूजा शिलाप्राकारो द्वारा यह आभास होता है कि मध्यमिका के इस वैष्णव भवन में इन दो वृष्णिवीरों की मूर्तियाँ, किसी स्थण्डिल पर पूजा हेतु प्रतिष्ठित रही होंगीं । ये पञ्चरात्र भाव की द्योतक नहीं हैं क्योंकि यहाँ पहले संकर्षण का उल्लेख हुआ है- ये तो वृष्णिवीरों की थीं। खेद है कि इनके निश्चित स्वरूप की पहचान करना संभव नहीं, परन्तु मथुरा की बलराम प्रतिमा द्वारा कुछ अनुमान तो किया ही जा सकता है ।
मेवाड़ क्षेत्र से ईसा की प्रारंभिक-शतियों की प्रस्तर प्रतिमाएँ अभी तक तो अज्ञात हैं। आयड़ की खुदाई द्वारा ऊपरी धरातल तो ईसा की प्रथम - तृतीय शती की मानी जा सकती है। उस समय यहां मिट्टी से बनी खपरैलों का प्रयोग होता है। तत्कालीन कृषाण रोड़ों से साम्य रखती हुई मृग्मृतियां आयड़ में मिली है जो स्थानिक पुरातत्व संग्रहालय' में सुरक्षित एवं प्रशित है। इनमें कुछ 'बोटिक टैंक' के सरि विहीनम्मोदर कुबेर या गणपति हाथ उठाकर नृत्यमुद्रा में प्रस्तुत नर्तकी • "ये कुछ मृण्मूर्तियां उल्लेखनीय हैं। इनमें कला - सौष्ठव को विशेष महत्त्व नहीं -दिया गया है ।
(भीलवाड़ा)
ईसा की तृतीय शती (संवत् २०२ - २२७ ईसवी) का बना एक पस्तंभ' आज भी गंगापुर से तीन मील दूरस्थ 'नदिसा' ग्राम के तालाब के बीच गड़ा हुआ है। इस पर एक शिलालेख खुदा है। यहां के अन्य यूपस्तंभ का एक खण्ड उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित है। इन स्तंभों द्वारा उस समय मेवाड़ की तक्षणकला का तो आभास होता है परन्तु तत्कालीन मूर्तियां सर्वथा अज्ञात हैं । सम्भव है, खुदाई द्वारा इस युग की कला पर कुछ भी
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