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वि मन्त्र दूसरी वस्तुओं से एकता स्थापित करते हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि ये सारी वस्तुएँ पुद्गल के रूप हैं, जिनसे यथार्थ में आत्मा का स्वरूप अलग है। जीव में पुद्गल के गुण नहीं हैं। इनका गुणस्थान और मार्गणास्थान से कोई प्रयोजन नहीं है। ये सब कर्मजन्य अवस्था में हैं । संसारावस्था में ये जीव की व्यवहार से कही जाती हैं। यदि इन सारी पौद्गलिक अवस्थाओं का जीव के साथ एकत्व हो तो जीव और पुद्गल के मध्य कोई भेदक रेखा ही न हो। जीव के भेद और संयोग नामकर्म की निष्पत्तियाँ हैं । व्यक्ति को जीव और कर्मास्रव के भेद का अनुभव होना चाहिए तथा उसे क्रोधादि अवस्थाओं को छोड़ देना चाहिए। क्योंकि इन अवस्थाओं के रहते हुए जीव कर्मों से बँधा है। जब अशुद्धता का खतरा जान लिया जाता है, तब आत्मा आस्रव के कारणों से अलग हो जाता है।
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ जैन आगम एवं साहित्य जो रचना वैशिष्टय निरूपण की प्रांजलता तथा अध्यात्म का पुट है, वह मूलाचार में नहीं। प्रवचनसार के अंत आगत मुनिधर्म
संक्षिप्त, किन्तु सारपूर्ण वर्णन से मूलाचार के किन्हीं वर्णनों में उनके साथ एकरूपता भी नहीं है। मूलाचार के समयसाराधिकार में कुन्दकुन्द के समयसार ग्रंथ की छाया भी नहीं है १९ ।
आचार्य वट्टेकर. आचार्य वट्टकेरकृत मूलाचार दिगंबर परंपरा में आधाराङ्ग के रूप में माना जाता है। आचार्य वीरसेन (८-९ वीं शती) ने षट्खण्डागम की धवला टीका (८१६ ई.) में मूलाचार को आचाराङ्ग के नाम से उल्लिखित करते हुए मूलाचार के पंचम अधिकार की गाथा संख्या २०२ इस प्रकार उद्धृत की है-पंचत्थिकाय छज्जीवणिकाये कालदव्वमण्णे य । आणागेज्झे भावे आणाविचयेण विचिणादि ॥
आचार्य वसुनन्दि ने मूलाचार के मङ्गलाचरण की वृत्ति में तथा आचार्य सकलकीर्ति ने अपने मूलाचार ग्रंथ के प्रारंभ में यह उल्लेख किया है कि आचाराङ्ग ग्रंथ का उद्धार कर प्रस्तुत मूलाचार ग्रंथ की रचना की गई है ।
कुछ लोग मूलाचार को आचार्य कुन्दकुन्द - कृत मानते हैं, क्योंकि मूलाचार सद्वृत्ति नामक कर्नाटक टीका में मेघचन्द्राचार्य तथा मुनिजनचिन्तामणि नामक एक कर्नाटक टीका में इसे आचार्य कुन्दकुन्द की रचना होने का उल्लेख किया गया है । मूडबि स्थित पं. लोकनाथ शास्त्री सरस्वती भंडार (जैनमठ ) की मूलाचार की ताड़पत्रीय प्रतिसंख्या ५६ के अंत में आचार्य वसुनन्दी की टीका की समाप्ति में एक प्रशस्ति-पद्य दिया गया है, जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द रचित होने की सूचना है १० । पं. कैलाशचंद्र शास्त्री ने लिखा है- इसमें संदेह नहीं कि मूलाचार कुन्दकुन्द का ऋणी है, किन्तु कुन्दकुन्दरचित प्रतीत नहीं होता। कुन्दकुन्दरचित नियमसार, प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रंथों में
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मूलाचार की कुछ गाथाएँ आवश्यकनिर्युक्ति, पिण्डनिर्युक्ति, जीवसमास तथा आतुरप्रत्याख्यान में मिलती है। कुछ गाथाओं का आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों की गाथाओं से भी साम्य है। इस आधार पर कुछ विद्वान् मूलाचार को संग्रहग्रंथ मानते हैं। यथार्थ में ये गाथाएँ उस काल की हैं, जब दिगंबर और श्वेताम्बर भेद का उदय नहीं हुआ था। अतः कुछ गाथाएँ बाद में दोनों संप्रदायों की सम्पत्ति बन गईं। इस प्रकार यह एक संग्रह-ग्रंथ नहीं कहा जा सकता।
वट्टकेर आचार्य का मूल नाम न होकर उनके ग्राम का नाम हो सकता है। दक्षिण में बेट्टकेरिया या बेट्टगेरि नाम वाले कुछ ग्राम अब भी है। इसमें संदेह नहीं कि मूलाचार बहुत पुराना है। आचार्य यतिवृषभ ने तिलोयपण्णत्ती में मूलाचार का उल्लेख किया है १२ । मूलाचार अपनी विषय-वस्तु और भाषा आदि की दृष्टि से तृतीय शती के आसपास का सिद्ध होता है १३ । इसके बारह अधिकार इस प्रकार हैं-- मूलगुण, बृहत्प्रत्याख्यान संस्तरस्तव, संक्षेपप्रत्याख्यान, सामाचार, पंचाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, अनगारभावना, समयसार, शीलगुण और पर्याप्ति । शिवार्य भगवती आराधना के रचयिता शिवार्य ने जो अपना परिचय दिया है, उससे इतना ही ज्ञात होता है कि आर्य जिननन्दि गणि, सर्वगुप्त गण और आचार्य मित्रनन्दि के पादमूल में सम्यक् रूप से श्रुत और अर्थ को जानकर हस्तपुट में आहार करने वाले शिवार्य ने पूर्वाचार्यकृत रचना को आधार बनाकर यह आराधना रची। गाथा २१६० में वह 'ससत्तीए' अपनी शक्ति से पूर्वाचार्यनिबद्ध रचना को उपजीवित करने की बात कहते हैं। उपजीवित का अर्थ पुनः जीवित करना होता है, अतः ऐसा भी अभिप्राय हो सकता है कि पूर्वाचार्यनिबद्ध जो आराधना लुप्त थी, उसे उन्होंने अपनी शक्ति से जीवित किया है । १४
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जैन परंपरा की किसी पट्टावली आदि में न तो शिवार्य नाम ही मिलता है और न उनके गुरुजनों का नाम मिलता है। भगवज्जिन सेनाचार्य ने अपने महापुराण के प्रारंभ में एक शिवकोटि नामक आचार्य का स्मरण किया है-
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