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अपने सुकी विधि
के लिए
यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्य - जैन आगम एवं साहित्य पूर्व होना निश्चित है। इससे यह स्पष्ट फलित होता है कि यति- के आचार्यरत्न माने जाते हैं। जैन-परम्परा में भगवान महावीर वृषभ का समय विक्रम की छठी शताब्दी का प्रथम चरण है। और गौतम गणधर के बाद कुन्दकुन्द का नाम लेना मङ्गलकारक
माना जाता है। उच्चारणाचार्य
मङ्गलं भगवान्वीरो मङ्गलं गौतमो गणी। भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् उनका उपदेश
मङ्गलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोऽस्तुमङ्गलम् ॥ श्रुतकेवलियों के समय तक तो मौखिक ही चलता रहा, किन्तु उनके पश्चात् विविध अङ्गों और पूर्वो के विषयों का कुछ विशिष्ट
दिगम्बर जैन साधुगण स्वयं को कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा
का कहलाने में गौरव मानते हैं। भगवान् कुन्दकुन्द के शास्त्र आचार्यों ने उपसंहार करके गाथासूत्रों में निबद्ध किया। गाथा शब्द का अर्थ है - गाये जाने वाले गीत। सत्र का अर्थ है -
" साक्षात् गणधरदेव के वचनों जैसे ही प्रमाणभूत माने जाते हैं। उनके महान् और विशाल अर्थ के प्रतिपादक शब्दों की संक्षिप्त रचना,
अनन्तर हुए ग्रंथकार आचार्य स्वयं के किसी कथन को सिद्ध करने जिसमें संकेतित बीज पदों के द्वारा विवक्षित विषय का पूर्ण
के लिए कुन्दकुन्द आचार्य के शास्त्रों का प्रमाण देते हैं, जिससे समावेश रहता है। इस प्रकार के गाथासूत्रों की रचना करके
उनका कथन निर्विवाद सिद्ध होता है। विक्रम सम्वत् ९९० में हुए उनके रचयिता आचार्य अपने सुयोग्य शिष्यों को गाथा सूत्रों के
देवसेनाचार्य अपने दर्शनसार नामक ग्रंथ में कहते हैंद्वारा सूचित अर्थ के उच्चारण करने की विधि और व्याख्यान जद् पउमणंदिणाहो सीमंधर समिदिव्वणाणेण । करने का प्रकार बतला देते थे और वे लोग जिज्ञासुजनों के लिए
ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं पयाणंति ।। गुरु-प्रतिपादित विधि से उन गाथा सूत्रों का उच्चारण और । "विदेह क्षेत्र के वर्तमान तीर्थंकर श्री सीमन्धर स्वामी से व्याख्यान किया करते थे। इस प्रकार गाथा सूत्रों के उच्चारण या प्राप्त किए हुए दिव्य ज्ञान के द्वारा श्री पद्मनन्दिनाथ (आचार्य व्याख्यान करने वाले आचार्यों को उच्चारणाचार्य, व्याख्यानाचार्य कुन्दकुन्द ) ने बोध नहीं दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्ग को या वाचक कहा जाता था।
कैसे जानते ?" जयधवलाकार ने उच्चारण, मूल उच्चारणा, लिखित वन्यो विभु विन कैरिह कौण्डकुन्दः। कुम्दप्रभा प्रणयि उच्चारणा, वप्पदेवाचार्य -लिखित उच्चारणा और स्वलिखित कीर्तिविभूषिताशः। यश्चारु-चारण-कराम्बुजचञ्चरीक श्चक्रे उच्चारणा का उल्लेख किया है। इन विविध संज्ञाओं वाली श्रुतस्य भरते प्रयत: प्रतिष्ठाम् ।। उच्चारणाओं के नामों पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि
(चन्द्रगिरि का शिलालेख) चूर्णिसूत्रों पर सबसे प्रथम जो उच्चारणा की गई, वह मूल उच्चारणा कहलाई। गुरु-शिष्य परम्परा कुछ दिनों तक उस मूल
कुन्द पुष्य की प्रभा को धारण करने वाली जिनकी कीर्ति. उच्चारणा के उच्चरित होने के अनन्तर जब समष्टि रूप से लिखी के द्वारा दिशायें विभूषित हुई हैं, जो चारण ऋद्धिधारी महामनियों गई, तो उसी का नाम लिखित उच्चारणा हो गया।
के हस्तकमलों के भ्रमर थे और जिस पवित्रात्मा ने भरत क्षेत्र में
श्रुत की प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किसके इस प्रकार उच्चारणा के लिखित हो जाने पर भी उच्चारणा.
द्वारा वन्द्य नहीं हैं ? कार्यों की परम्परा तो चालू ही थी, अतएव मौखिक रूप से भी वह प्रवाहित होती हुई प्रवर्तमान रही। तदनन्तर कुछ विशिष्ट
....", कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ।। व्यक्तियों ने अपने विशिष्ट गुरुओं से विशिष्ट उपदेश के साथ उस रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्य ऽपि संव्यञ्जयितुं यतीशः। उच्चारणा को पाकर व्यक्तिगत रूप से भी लिपिबद्ध किया और रजः पदं भूमितलं विहाय चचार मत्ये चतुरंगुलं सः ॥ वह वप्पदेवाचार्य लिखित उच्चारणा, वीरसेन लिखित उच्चारणा
(विन्ध्यगिरि शिलालेख) आदि नामों से प्रसिद्ध हुई।
. यतीश्वर (श्री कुन्दुकुन्द स्वामी) रज: स्थान को-भूमितल द- आचार्य कुन्दकुन्द विक्रम की प्रथम शताब्दी को छोड़कर चार अंगुल ऊपर आकाश में चलते थे. उससे मैं
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