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यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - विवेकवान् मथन ने इसे लिखकर कोविदजनों को दिया। महासेन महान् बुद्धि के धारक महानुभाव के शिष्य नेमिदेव हुए, जो का समय दशवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध है।
स्याद्वादसमुद्र के पारदर्शी थे और परवादियों के दर्परूपी वृक्षों के
उच्छेदन के लिए कुठार के समान थे। जिस प्रकार खान में से हरिषेण
अनेक रत्न निकलते हैं, उसी प्रकार उन तपोलक्ष्मीपति के बहुत हरिषेण नाम के कई आचार्य हुए। डा. एन.एन. उपाध्ये ने से शिष्य हुए। उनमें सैकड़ों से छोटे श्री सोमदेव पण्डित हुए जो छह हरिषेण नाम के ग्रन्थकारों का निर्देश किया है। बृहत्कथाकोश तप, शास्त्र और यश के स्थान थे। ये भगवान् सोमदेव समस्त के रचयिता इन सबसे भिन्न हैं। इन्होंने इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में विद्याओं के दर्पण, यशोधरचरित के रचयिता, स्याद्वादोपनिषद् लिखा है--
के कर्ता तथा अन्य सुभाषितों के भी रचयिता हैं। समस्त यो बोधको भव्यकुमुद्वतीनां निःशेषराद्धान्तवचोमयूखैः।
महासामन्तों के मस्तकों की पुष्पमालाओं से जिनके चरण पुन्नाटसंघाम्बरसंनिवासी श्रीमौनिभट्टारकपूर्णचन्द्रः॥
सुगन्धित हैं, जिनका यशकमल सम्पूर्ण विद्वज्जनों के कानों का जैनालयवातविराजितान्ते चंद्रावदातद्युतिसौधजाले।
आभूषण है, और सभी राजाओं के मस्तक जिनके चरणकमलों कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्द्धमानाख्यपुरे वसन् सः।। से सुशोभित होते हैं। यशस्तिलक का रचनाकाल विक्रम सं. सारागमाहितमतिर्विदुषां प्रपूज्यो नानातपोविधिविधानकरो विनेयः। १०६४ है।७६ अत: सोमदेवसूरि का समय विक्रम की ग्यारहवीं तस्याभवद् गुणनिधिर्जनताभिवन्द्यः श्रीशब्दपूर्वपदको हरिषेणसंज्ञः॥ शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जा सकता है। इससे स्पष्ट द्योतित होता है कि इनके गुरु का नाम मौनि ।
पद्मप्रभ मलधारिदेव भट्टारक था। ये पुन्नाट संघ के आचार्य थे। उनका निवास स्थान वर्द्धमानपुर था। इनके द्वारा रचित बृहत्कथाकोश, पद्यमय है।
ये आचार्य कुन्दकुन्द के नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक २५०० अनुष्टुप् श्लोकप्रमाण है। हरिषेण का समय ई. सन् की
टीका के रचयिता हैं। इन्होंने अपने आपको सुकविजन रूपी १०वीं शताब्दी माना जाता है।
कमलों के लिए सूर्यसमान, पञ्चेन्द्रियों के विस्तार से रहित
तथा गात्रमात्रपरिग्रह कहा है। नियमसार के परमार्थप्रतिक्रमण सोमदेवसूरि
अधिकार के अंत में तथा ग्रन्थ के आदि में इन्होंने श्री वीरनन्दि राजशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ नीतिवाक्यामृत के रचयिता
नामक मुनिराज को नमस्कार किया है। मद्रास प्रांत के श्रीमत्सोमदेवसरि दिगंबर संप्रदाय में प्रसिद्ध देवसंघ के आचार्य 'पटशिवपुरम' ग्राम में एक स्तम्भ पर पश्चिमी चालुक्य राजा थे। आचार्यप्रवर के प्रमुख ग्रन्थ यशस्तिलक तथा नीतिवाक्यामृत त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वर के समय का शक सं. ११०७ का एक के अध्ययन, लेमुलवाड दानपत्र तथा राष्ट्रकूट-नरेश कृष्ण ततीय अभिलेख है, जबकि उसके मांडलिक त्रिभुवनमल्ल, भोगदेवचोल्ल के ताम्रपत्र से पर्याप्त जानकारी मिलती है। यशस्तिलक की हेजरा नगर पर राज्य कर रहे थे। उसी में यह लिखा है कि जब प्रशस्ति के अनसार शोमदेव के गरु का नाम नेमिदेव तथा नेमिदेव वह जैन मंदिर बनवाया गया था, तब श्री पद्मप्रभ मलधारिदेव के गुरु का नाम यसोदेव था। सोमदेव के गुरु नेमिदेव महान्
और उनके गुरु श्री वीरनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती विद्यमान थे। दार्शनिक थे और उन्होंने शास्त्रार्थ में ९३ महावादियों को पराजित अतएव इन प्रमाणों के आधार पर पद्मप्रभमलधारिदेव का समय किया था।७४ नीतिवाक्यामृत की प्रशस्ति के अनुसार सोमदेव ईसवी सन् की १२वीं शताब्दी सिद्ध होता है।७७ महेन्द्रदेव भट्टारक के कनिष्ठ भ्राता थे और उन्हें अनेक गौरवसूचक इनके द्वारा रचित ९ पद्यों का पार्श्वनाथ स्तोत्र भी प्राप्त उपाधियाँ प्राप्त थी, जिनमें स्याद्वादाचलसिंह तार्किकचक्रवर्ती, होता है। वादीभपंचानन, वाक्कल्लोलपयोनिधि आदि प्रमुख हैं।७५
शुभचन्द्र - शुभचन्द्र नाम के अनेक आचार्य, विद्वान् और लैमुलवाड दानपत्र से विदित होता है कि श्रीगौड़ संघ में
भट्टारक हुए। एक शुभचंद्र आचार्य सागवाड़ा के पट्ट पर विक्रम यशोदेव नामक आचार्य हुए जो मुनिमान्य थे और जिन्हें उग्रतप
संवत् १६०० (ई. सन् १५४४) में हुए हैं। इन्हें षड्भाषाकविचक्रवर्ती के प्रभाव से जैनशासन के देवताओं का साक्षात्कार था। इन Fantiwanambrowondwanoransaxiwaroranoramiriwari६२ Pawaririwarrioriramirrorandrowdnorariwarranslamirirder
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