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________________ किया। - यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - जैन आगम एवं साहित्य - त्वत्पादद्वयदैवतस्य गदतः शान्त्यष्टकं भक्तितः।। जोइन्दु कवि के जीवन के संबंध में किसी भी साधन इस प्रकार स्तवन करते ही उनकी दृष्टि निर्मल हो गई, किन्तु से कोई प्रामाणिक सूचना प्राप्त नहीं होती है। परमात्मप्रकाश में इस घटना का उनके ऊपर ऐसा प्रभाव पडा. जिससे उन्होंने तीर्थयात्रा बताया गया है कि यह ग्रंथ भट्ट प्रभाकर के निमित्त से लिखा से लौटकर अपने ग्राम में आकर समाधिमरण किया। जा रहा है। ग्रंथकार ने लिखा है-- पूज्यपाद आचार्य का समय विक्रम की ५वीं शताब्दी के इत्थुण लेवउ पंडियहिं गुणदोसु वि पुणरुत्तु। उत्तरार्द्ध से लेकर छठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध के मध्य माना जाता भट्ट पमायर कारणइं मई पुणु वि पउत्तु । है। उनके द्वारा निर्मित रचनाएँ निम्नलिखित हैं-- अर्थात् हे भव्यजीवो! इस ग्रंथ में पुनरुक्त नाम का दोष पंडितजन ग्रहण नहीं करेंगे और न काला की दृष्टि से ही १. सर्वार्थसिद्धि, २. जैनेन्द्र-व्याकरण, ३. इष्टोपदेश, ४. इसका परीक्षण करेंगे। यतः मैंने प्रभाकर भट्ट को संबोधित करने समाधितंत्र, ५. दशभक्ति, ६. शान्त्यष्टक, ७. सारसंग्रह, ८. चिकित्साशास्त्र, ९. जैनाभिषेध, १०. सिद्धिप्रियस्तोत्र, ११. के लिए परमात्मतत्त्व का कथन किया है। इस कथन से यह जैनेन्द्रन्यास तथा १२. शब्दावतारन्यास। निष्कर्ष निकलता है कि भट्ट प्रभाकर कोई मुमुक्षु था, जिसके लिए इस ग्रंथ का प्रतिपादन किया गया है। यह ग्रंथ मुख्य रूप पात्रकेसरी स्वामी पात्रकेसरी के समय की सीमा विक्रम की से मनियों को लक्ष्य कर लिखा गया है और इसके लेखक भा नवम शताब्दी से पूर्व निश्चित रूप से सिद्ध होती है, क्योंकि क अध्यात्मरसिक मुनि ही हैं ३१॥ . महापुराण के प्रारंभ में जिनसेनाचार्य ने उनका उल्लेख किया है। दिङ्नाग के त्रैरूप्य हेतु के लक्षण का खंडन करने के लिए . अंतिम मङ्गल के लिए आशीर्वाद रूप में नमस्कार करते उन्होंने त्रिलक्षण-कदर्थन नामक ग्रंथ लिखा, अत: पात्रकेसरी हुए लिखा है कि इस लोक में विषयी जीव जिसे नहीं पा सकते, दिङ्नाग (ईसा की पाँचवीं शताब्दी) के पश्चात् होने चाहिए। ऐसा यह परमात्मतत्त्व जयवन्त हो। विषयातीत वीतरागी मुनि त्रिलक्षण-कदर्थन विषयक उनका श्लोक निम्नलिखित है-- ही इस आत्मत्त्व को प्राप्त कर सकते हैं। जो मुनि भावपूर्वक इस परमात्मप्रकाश का चिंतन करते हैं, वे समस्त मोह को जीतकर अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्। परमार्थ के ज्ञाता होते हैं। अन्य जो भी भव्यजीव इस नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्। परमात्मप्रकाश को जानते हैं, वे भी लोक और और अलोक का बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ने 'तत्त्वसंग्रह' के अनुमानपरीक्षा प्रकाश करने वाले ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं ३२। नामक प्रकरण में पात्रकेसरी के त्रिलक्षणकदर्थन नामक ग्रंथ से जोइंदु का समय छठी शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। कारिकाएँ उद्धृत कर उनकी आलोचना की है। अकलंकदेव उनकी रचनाएँ निम्नलिखित हैं--१. परमात्मप्रकाश (अपभ्रंश), भी शांतरक्षित के पूर्व समकालीन थे, अतः उन्होंने भी उस ग्रंथ २. नौकार श्रावकाचार (अपभ्रंश), ३. योगसार (अपभ्रंश), ४. को देखा होगा। न्यायशास्त्र के मुख्य अंग हेतु आदि के लक्षण अध्यात्मसंदोह (संस्कृत), ५. सुभाषिततंत्र (संस्कृत) और ६. का उपपादन अवश्य ही पात्रकेसरी की देन है। तत्त्वार्थटीका (संस्कृत)। सुमति - बौद्ध दार्शनिक शांतरक्षित ने अपने ग्रंथ तत्त्वसंग्रह के परमात्मप्रकाश साक्षात् मोक्षमार्ग का प्रतिपादक है। जिस अंतर्गत स्याद्वादपरीक्षा (कारिका १२६२ आदि) और बहिरर्थ: तरह आचार्य कुन्दकुन्द की नाटकत्रयी है, उसी प्रकार यह भी परीक्षा (कारिका १९४०) में सुमति नामक दिगंबराचार्य के मत अध्यात्मविषय की परमसीमा है, क्योंकि ग्रंथकर्ता ने स्वयं इस की आलोचना की है। सुमति ने सिद्धसेन के सन्मतितर्क पर ग्रंथ के पढ़ने का फल लिखा है, इसका सतत् अभ्यास करने विवृत्ति लिखी थी, ऐसा स्पष्ट उल्लेख मिलता है। यह उल्लेख वालों का मोहकर्म दूर होकर केवलज्ञानपूर्वक मोक्ष अवश्य ही वादिराज सूरि के पार्श्वनाथचरित के प्रारंभ में है और श्रवणबेलगोल हो सकता है। की मल्लिषेण-प्रशस्ति में उन्हें सुमतिसप्तक का रचयिता कहा गया है। सुमति का दूसरा नाम सन्मति भी था। विमलसूरि - पउमचरिय और हरिवंस चरिय के लेखक के रूप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211428
Book TitlePrachin Digambaracharya aur unki Sahitya Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRameshchandra Jain
PublisherZ_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
Publication Year1999
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationArticle & Literature
File Size3 MB
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