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जैन विद्या के आयाम खण्ड ६ की जैन दार्शनिकों द्वारा की गई समीक्षाओं की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध है। इन आगमों की प्राकृत एवं संस्कृत आगमिक व्याख्याओं, यथा-निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि, वृत्ति, टीका आदि के अतिरिक्त जैन दार्शनिक ग्रन्थों में भी भौतिकवादी जीवन दृष्टि की समीक्षाएं उपलब्ध हैं । किन्तु इन सबको तो किसी एक स्वतन्त्र ग्रन्थ में ही समेटा जा सकता है। अतः इस निबन्ध की सीमा मर्यादाओं का ध्यान रखते हुए हम अपनी विवेचना को पूर्व निर्देशित प्राचीन स्तर के प्राकृत आगमों तक ही सीमित रखेंगे।
आचारांग में लोकसंज्ञा के रूप में लोकायत दर्शन का निर्देश
जैन आगमों में आचारांग का प्रथम श्रुतस्कन्ध अतिप्राचीन माना जाता है। विद्वानों में ऐसी मान्यता है कि इस ग्रन्थ में स्वयं महावीर के वचनों का संकलन हुआ है। इसका रचनाकाल चौथी-पाँचवीं शताब्दी ई.पू. माना जाता है। आचारांग में स्पष्ट रूप से लोकायत दर्शन का उल्लेख तो नहीं है किन्तु इस ग्रन्थ में इसकी समीक्षा की गई है। सूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है कि कुछ लोगों को यह ज्ञात नहीं होता कि मेरी आत्मा औपपातिक (पुनर्जन्म करने वाली) है। मैं कहाँ से आया हूँ और यहाँ से अपना जीवन समाप्त करके कहाँ जन्म ग्रहण करूँगा? सूत्रकार कहता है कि व्यक्ति को यह जानना चाहिए कि मेरी आत्मा औपपातिक (पुनर्जन्म ग्रहण करने वाली ) है जो इन दिशाओं और विदिशाओं में संचरण करती है और वही मैं हूँ। वस्तुतः जो यह जानता है वही आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी और क्रियावादी है । ६ इस प्रकार इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में चार्वाक दर्शन की मान्यताओं के विरुद्ध चार बातों की स्थापना की गई है.... आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद और क्रियावाद । आत्मा की स्वतन्त्र और नित्य सत्ता को स्वीकार करना आत्मवाद है। संसार को यथार्थ और आत्मा को लोक में जन्म-मरण करने वाला समझना लोकवाद है। आत्मा को शुभाशुभ कर्मों की कर्ता भोक्ता एवं परिणामी (विकारी) मानना क्रियावाद है। इसी प्रकार आचारांग में लोकसंज्ञा का परित्याग करके इन सिद्धान्तों में विश्वास करने का भी निर्देश दिया गया है। ज्ञातव्य है कि आचारांग में लोकायत या चार्वाक दर्शन का निर्देश लोक-संज्ञा के रूप में हुआ है। यद्यपि इसमें इन मान्यताओं की समालोचना तो की गई है किन्तु उसकी कोई तार्किक भूमिका प्रस्तुत नहीं की गई है।
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विनाश होने पर देही का भी विनाश हो जाता है।' साथ ही यह भी बताया गया है कि व्यक्ति चाहे मूर्ख हो या पण्डित प्रत्येक की अपनी आत्मा होती है जो मृत्यु के बाद नहीं रहती । प्राणी औपपातिक अर्थात् पुर्नजन्म ग्रहण करने वाले नहीं है। शरीर का नाश होने पर देही अर्थात् आत्मा का भी नाश हो जाता है। इस लोक से परे न तो कोई लोक है और न पुण्य और पाप ही है। इस प्रकार सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में भी चार्वाक दर्शन की मान्यताएं परिलक्षित होती है। यद्यपि सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चार्वाक दर्शन की समीक्षा प्रस्तुत की गई है, किन्तु विद्वानों ने उसे किंचित् परवर्ती माना है। अतः उसके पूर्व हम उत्तराध्ययन का विवरण प्रस्तुत करेंगे। इसमें चार्वाक दर्शन को जन-श्रद्धा (जन-सद्धि) कहा गया है। सम्भवतः लोकसंज्ञा और जनश्रद्धा, ये लोकायत दर्शन के ही पूर्व नाम हैं। उत्तराध्ययन में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ये सांसारिक विषय ही हमारे प्रत्यक्ष के विषय हैं। परलोक को तो हमने देखा ही नहीं। वर्तमान के काम-भोग हस्तगत हैं। जबकि भविष्य में मिलने वाले स्वर्ग-सुख अनागत अर्थात् संदिग्ध हैं। कौन जानता है कि परलोक है भी या नहीं? इसलिए मैं तो जन - श्रद्धा के साथ होकर रहूँगा । ११ इस प्रकार उत्तराध्ययन के पंचम अध्याय में चार्वाकों की पुर्नजन्म के निषेध की अवधारणा का उल्लेख एवं खण्डन किया गया है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन के चौदहवें अध्याय में भी चार्वाकों के असत् से सत् की उत्पत्ति के सिद्धान्त का प्रस्तुतीकरण किया गया है। क्योंकि चार्वाकों का पंचमहाभूत से चेतना की उत्पत्ति का सिद्धान्त वस्तुतः असत् से सत् की उत्पत्ति का सिद्धान्त है यद्यपि उत्तराध्ययन में असत्कार्यवाद का जो उदाहरण प्रस्तुत किया गया है, वह असत्कार्यवाद के पक्ष में न जाकर सत्कार्यवाद के पक्ष में ही जाता है। उसमें कहा गया है कि जैसे- अरणि में अग्नि, दूध में घृत और तिल में तेल असत् होकर भी उत्पन्न होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव भी असत् होकर ही उत्पन्न होता है और उस शरीर का नाश हो जाने पर वह भी नष्ट हो जाता है। १२ सम्भवतः उत्तराध्ययन में चार्वाकों के असत्कार्यवाद की स्थापना के पक्ष में ये सत्कार्यवाद की सिद्धि करने वाले उदाहरण इसीलिये दिये गये होंगे ताकि इनकी समालोचना सरलता पूर्वक की जा सके। उत्तराध्ययन में आत्मा को अमूर्त होने के कारण इन्द्रिय ग्राह्य नहीं माना गया है, अमूर्त होने से नित्य कहा गया है। १३ उपरोक्त विवरण से चार्वाकों के सन्दर्भ में निम्न जानकारी मिलती है
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सूत्रकृतांग में लोकायत दर्शन
आचारांग के पश्चात् सूत्रकृतांग का क्रम आता है। इसके नाम से अभिहित किया जाता था। प्रथम श्रुतस्कन्ध को भी विद्वानों ने अतिप्राचीन (लगभग ई.पू. चौथी शती) माना है सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्याय में हमें वह चार्वाक दर्शन के पंचमहाभूतवाद और तज्जीवतच्छरीरवाद के उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसमें पंचमहाभूतवाद को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि पृथ्वी, अप्, तेजस, वायु और आकाश ऐसे पाँच महाभूत माने गये हैं उन पांच महाभूतों से ही प्राणी की उत्पत्ति होती है और देह का
१. चार्वाक दर्शन को “लोक-संज्ञा" और "जन-श्रद्धा" के
२. चार्वाक दर्शन आत्मा को स्वतन्त्र तत्त्व नहीं मानता था । पंचमहाभूतों से चेतना की उत्पत्ति बताता था।
३. इसी कारण वह असत्कार्यवाद अर्थात् असत् से सत् की उत्पत्ति के सिद्धान्त को स्वीकार करता था।
४. शरीर के नाश के साथ आत्मा के विनाश को स्वीकार करता था, तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त को अस्वीकार करता था । पुनर्जन्म
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