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आचार्यप्रवभिनआचार्यप्रवभिन श्रीआनन्द न्यश्रीआनन्द अन्य
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प्राकृत भाषा और साहित्य
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प्राकृत की प्रकृति के रूप में जो निरूपित किया है, उसका एक विशेष आशय प्रतीत होता है। ये वैयाकरण तथा काव्यशास्त्रीय टीकाकार प्रायः प्राकृत-काल के पश्चादवर्ती हैं। इनका समय अपभ्रंशों के अनन्तर आधुनिक भाषाओं के उद्गम तथा विकास के निकट का है। तब प्राकृत का पठन-पाठन लगभग बन्द हो गया था। यहाँ तक कि प्राकृत को समझने के लिए संस्कृत-छाया से काम लेना पड़ता था अर्थात् पुरातन भाषाओं के सीखने का माध्यम संस्कृत थी। इसका मुख्य कारण यह है कि संस्कृत यद्यपि लोक-भाषा का रूप कभी भी नहीं ले सकी परन्तु भारत की आर्यभाषाओं के आदिकाल से लेकर अनेक शताब्दियों तक वह भारत में एक शिष्टभाषा के रूप में प्रवृत्त रही। इस दृष्टि से उसकी व्याप्ति और महत्त्व क्षीण नहीं हआ। तभी तो जैसा कि सूचित किया गया है, काल-क्रमवश जन-जन के लिए अपरिचित बनी प्राकृत जैसी भाषा जो कभी सर्वजन-प्रचलित भाषा थी, को समझने के लिए संस्कृत जैसी शिष्टभाषा का अवलम्बन लेना पड़ा । सम्भवत: प्राकृत-वैयाकरणों के मन पर इसी स्थिति का असर था। यही कारण है कि उन्होंने प्राकृत का आधार संस्कृत बताया । यहाँ तक हुआ, जैन विद्वान्, जैन श्रमण, जिनका मौलिक वाङमय प्राकृत में रचित है, अपने आर्य ग्रन्थों के समझने में संस्कृत छाया और टीका का सहारा आवश्यक मानने लगे थे।
विशेषतः हेमचन्द्र के प्राकृत-व्याकरण के सम्बन्ध में कुछ और ज्ञापनीय है। हेमचन्द्र ने कोई स्वतन्त्र प्राकृत-व्याकरण नहीं लिखा । वस्तुतः हेमचन्द्र ने सिद्धहैमशब्दानुशासन के नाम से बृहत् संस्कृतव्याकरण की रचना की। उसके सात अध्यायों में संस्कृत-व्याकरण के समग्र विषयों का विवेचन है ।
१. आचार्य हेमचन्द्र के व्याकरण रचने के सम्बन्ध में एक घटना है । गुर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह, जो
गुर्जरदेश को काश्मीर, काशी और मिथिला की तरह संस्कृत विद्या का प्रशस्त पीठ देखना चाहता था, का अपने राज्य के विद्वानों से यह अनुरोध था कि वे एक नूतन व्याकरण की रचना करें, जो अपनी कोटि की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति हो । सिद्धराज जयसिंह को विशेषतः यह प्रेरणा तब मिली, जब उसने अपने द्वारा जीते गये मालवदेश के लूट के माल में आये एक ग्रन्थ-भण्डार की गवेषणा करवाई । उसमें धाराधीश भोज द्वारा रचित एक व्याकरण-ग्रन्थ पर सिद्धराज की दृष्टि पड़ी, जिस (ग्रन्थ) की पण्डितों ने बड़ी प्रशंसा की। सिद्धराज की साहित्यिक स्पर्धा जागी। फलतः उसने विद्वानों से उक्त अनुरोध किया। सिद्धराज की राजसभा में हेमचन्द्र का सर्वातिशायी स्थान था। वे अप्रतिम प्रतिभा के धनी थे, अनेक विषयों के मार्मिक विद्वान् थे । प्रभावकचरित में इस प्रसंग का यों उल्लेख किया गया है
"सर्वे सम्भूय विद्वान्सो, हेमचन्द्र व्यलोकयन् । महाभक्त्या राज्ञासावभ्यर्च्य प्राथितस्ततः ।। शब्दव्युत्पत्तिकृच्छास्त्रं निर्मायास्मन्मनोरथम् । पूरयस्व महर्षे! त्वं, बिना त्वामत्र कः प्रभुः ॥ यशो मम तव ख्याति:, पुण्यं च मुनिनायक ! विश्वलोकोपकाराय, कुरु व्याकरणं नवम् ॥"
-प्रभावकचरित १२, ८१, ८२, ८४
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