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प्राकृत भाषा और साहित्य
प्राकृत के प्रकार प्राकृतें जीवित भाषाएँ थीं । जैसा कि स्वाभाविक है, भिन्न-भिन्न प्रदेशों में बोले जाने के कारण उनके रूपों में भिन्नता आई। उन (बोलचाल की भाषाओं या बोलियों) के आधार पर जो साहित्यिक प्राकृतें विकसित हुई, उनमें भिन्नता रहना स्वाभाविक था। यों प्रादेशिक या भौगोलिक आधार पर प्राकृतों के कई भेद हुए। उनके नाम प्रायः प्रदेश विशेष के आधार पर रखे गये।
आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र में प्राकृतों का वर्णन करते हुए मागधी, अवन्तिजा, प्राच्या, सूरसेनी, अर्धमागधी, बालीका, दक्षिणात्या नाम से प्राकृत के सात भेदों की चर्चा की है।'
प्राकृत के उपलब्ध व्याकरणों में सबसे प्राचीन प्राकृत प्रकाश के प्रणेता वररुचि ने महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, और पैशाची इन भेदों का वर्णन किया है।
चण्ड ने मागधी को मागधिका और पैशाची को पैशाचिकी के नाम से उल्लिखित किया है।
छठी शती के सुप्रसिद्ध काव्यशास्त्री दण्डी ने काव्यादर्श में प्राकृतों की भी चर्चा की है। उन्होंने महाराष्ट्री (महाराष्ट्राश्रया), शौरसेनी, गौड़ी और लाटी इन चार प्राकृतों का उल्लेख किया है।
आचार्य हेमचन्द्र ने वररुचि द्वारा वणित चार भाषाओं के अतिरिक्त आर्ष, चूलिका, पैशाची और अपभ्रंश इन तीनों को प्राकृतभेदों में और बताया है। हेमचन्द्र ने अर्द्धमागधी को आर्ष कहा है।
त्रिविक्रम, लक्ष्मीधर, सिंहराज और नरसिंह आदि वैयाकरणों ने आचार्य हेमचन्द्र के विभाजन के अनुरूप ही प्राकृत भेदों का प्रतिपादन किया है । अन्तर केवल इतना-सा है, इसमें त्रिविक्रम के अतिरिक्त किसी ने भी आर्ष का विवेचन नहीं किया है। वस्तुतः जैन-परम्परा के आचार्य होने के नाते हेमचन्द्र का, अर्द्धमागधी (जो जैन आगमों की भाषा है) के प्रति विशेष आदरपूर्ण भाव था, अतएव उन्होंने इसे आर्ष नाम से अभिहित किया।
१. मागध्यवन्तिजा प्राच्या सूरसेन्यर्धमागधी ।
वाह्नीका दाक्षिणात्या च सप्त भाषाः प्रकीर्तिताः ।।
-नाट्यशास्त्र १७, १८,
-प्राकृत लक्षण ३.३८ -प्राकृत लक्षण ३.३६
२. प्राकृत प्रकाश १०.१-२, ११.१, १२.३२ ३. पैशाचिक्यां रणयोर्लनौ ॥
मागधिकायां रसयोलशौ ।। महाराष्ट्राश्रयां भाषां, प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । सागरः सूक्तिरत्नानां, सेतुबन्धादि यन्मयम् ।। शौरसेनी च गौडी च, लाटी चान्या च तादृशी ।
याति प्राकृतमित्येवं, व्यवहारेषु सन्निधिम् ।। ५. ऋषीणामिदमार्षम् ।
-काव्यादर्श १.३४-३५
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