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प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद
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हरगोविन्ददास टी० सेठ के शब्दों में प्रथम स्तर की प्राकृनें, जिन्हें सर जार्ज ग्रियर्सन ने Primary Prakritas कहा है, प्रचलित थीं, उन्हें देशभाषा या देशी भाषा के नाम से अभिहित किया गया है। इस सम्बन्ध में कतिपय पाश्चात्य भाषावैज्ञानिकों का मत है कि प्राकृत भाषाओं में जो देशी शब्द और धातुएँ प्रचलित हैं, वे वास्तव में द्रविड़ परिवार तथा आग्नेय परिवार, जो अनार्य भाषा परिवार हैं, से आई हैं । क्योंकि आर्यों का भारत आने से पूर्व यहाँ मुख्यतः द्रविड़ परिवार तथा आग्नेय परिवार की भाषाएँ बोलने वाले लोग बसते थे। आर्यों द्वारा भारत की भूमि ज्यों-ज्यों अधिकृत की जाती रही, वे (अनार्य) अन्य सुरक्षित स्थानों की ओर सरकते रहे। बाद में वहाँ भी आर्य' पहुँच गये। संघर्ष के बाद आर्य, अनार्य दोनों जातियों के लोग वहाँ स्थिर हो गये । साथ-साथ रहने से पारस्परिक सम्पर्क बढ़ना स्वाभाविक था । फलतः अनार्य भाषाओं के कुछ शब्द आर्यों की बोलचाल की भाषाओं (या तात्कालीन प्राकृतों) में समा गये ।
महाभारत का जो उद्धरण देशभाषाओं के सम्बन्ध में पहले उपस्थित किया गया है, उसके सन्दर्भ पर गौर करने से उक्त तथ्य परिपुष्ट होता है। उन सैनिकों और पार्षदों की वेषभूषा, चाल-ढाल आदि
१. संभवत: वे ये आर्य थे, जो आर्यों के दूसरे दल के मध्यदेश में आ जाने पर वहाँ से भाग उठे थे और मध्यदेश के इर्द-गिर्द आबाद हो गये थे।
नानावेषधराश्चैव नानामाल्यानुलोपनाः । नानावस्त्रधराश्चैव चर्मवासस एव च ॥ उष्णीषिणो मुकुटिनः सुग्रीवाश्च सुवर्चसः । किरीटिनः पञ्च शिखास्तथा काञ्चन मूर्धजाः । त्रिशिखा द्विशिखाश्चैव तथा सप्तशिखाः परे । शिखण्डिनो मुकुटिनो मुण्डाश्च जटिलास्तथा ॥ चित्रमालाधराः केचित् केचित् रोमाननास्तथा । विग्रेहरसा नित्यमजेया सुरसत्तमैः ॥ कृष्णा निर्मासवक्त्राश्च दीर्घपृष्ठास्तनूदराः । स्थूलपृष्ठा ह्रस्वपृष्ठा प्रलम्बोदरमेहनाः ॥ महाभुजा ह्रस्वभुजा ह्रस्वगात्राश्च वामनाः । कुब्जाश्च ह्रस्वजङ्घाश्च हस्तिकर्ण शिरोधराः ।। हस्तिनासा कूर्मनासा वृकनासास्तथापरे । दीर्घोच्छ्वासा दीर्घजङ्घा विकराला ह्यधोमुखाः ।। महादंष्ट्रा ह्रस्वदंष्ट्राश्चतुर्दष्ट्रास्तथा परे । वारणेन्द्र निभाश्चात्ये भीमा राजन् सहस्रशः ।। गविभक्त शरीराश्च दीप्तिमन्तः स्वलङ कृताः। पिङ्गाक्षा शङ कुकर्णाश्च रक्तनासाश्च भारत ।। पृथुदंष्ट्रा महादंष्ट्रा: स्थूलौष्ठा हरिमूर्धजाः । नाना पादौष्ठदंष्ट्राश्च नानाहस्तशिरोधराः ।।-महाभारत शल्य पर्व १४५-६३-१०२
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