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प्राकृत : विभिन्न भेद और लक्षण
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(३) चूलिका पैशाची में आदि अक्षरों में उक्त नियम लागू नहीं होता, जैसेगति:= गती
ग का क नहीं हुआ धर्म=धम्मो ध के स्थान पर थ नहीं हुआ घनघनो ___ध के स्थान पर ख नहीं हुआ।
४. अर्धमागधो
साधारणतः अर्द्धमागधी शब्द की व्युत्पत्ति 'अर्द्ध मागध्याः' अर्थात् जिसका अर्धांश मागधी का हो, वह भाषा अर्द्धमागधी कहलायेगी, परन्तु जैन सूत्र ग्रन्थों की भाषा में उक्त युक्ति सम्यक् प्रकार से घटित नहीं होती, तीर्थकर या भगवान महावीर इत्यादि अपना धर्मोपदेश अर्द्धमागधी में देते थे। और यह शान्ति, आनन्द ब सुखदायी भाषा आर्यअनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु-पक्षी और सरीसृपों के लिए अपनी बोली में परिणत हो जाती थी। ओववाइयसूत्र से उक्त कथन की पुष्टि हो जाती है। इसका मूल उत्पति स्थान पश्चिम मगध व शूरसेन (मथुरा) का मध्यवर्ती प्रदेश है । प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव अयोध्या के निवासी थे, अत: अयोध्या में ही इस भाषा की उत्पत्ति मानी जाती है। प्रदेश की दृष्टि से अनेक विचारक इसे काशी-कौशल की भाषा भी मानते हैं।
सर आ० जी० भण्डारकर अर्द्धमागधी का उत्पत्ति समय खितीय द्वितीय शताब्दी मानते हैं । इनके मतानुसार कोई भी साहित्यिक प्राकृत भाषा ख्रिस्त की प्रथम व द्वितीय शताब्दी से पहले की नहीं है। इसका अनुसरण कर डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी ने अपनी पुस्तक में अर्द्धमागधी का समय ख्रिस्तीय तृतीय शताब्दी स्थिर कर दिया है।
(अ) हार्नले ने समस्त प्राकृत बोलियों को दो भागों में बाँटा है। एक वर्ग को शोरसेनी प्राकृत व दूसरे वर्ग को मागधी प्राकृत कहा है।
(ब) ग्रियर्सन के अनुसार शनै:-शनैः ये आपस में मिलीं और इनसे तीसरी प्राकृत उत्पन्न हुई, जिसे अर्द्ध मागधी कहा गया है।
(स) मार्कण्डेय ने इस भाषा के विषय में कहा है "शौरसेन्या अइरत्वादिय मेवार्धमागधी अर्थात शौरसेनी के निकट होने के कारण मागधी ही अर्द्धमागधी है।" ..
लक्षण-(अ) वर्ण सम्बन्धी दो स्वरों के मध्य के मध्यवर्ती असंयुक्त क् के स्थान में सर्वत्र ग और अनेक स्थलों में त और य पाये जाते हैं।
प्रकल्प =पगप्प, आकाश = आगास, निषेधक =णिसेवग
(ब) दो स्वरों के बीच का असंयुक्त य प्रायः स्थिर रहता है व कहीं-कहीं त और य भी पाये जाते हैं। जैसेआगम-आगम । ग ज्यों का त्यों स्थिर है । आगमणं आगमन; ग को छोड़ न का ण हुआ।
(स) दो स्वरों के बीच आने वाले असंयुक्त च और ज के स्थान पर त् और य ही होता है णारात<नाराच पावतण < प्रवचन इत्यादि; पूजा=पूता, पूया इत्यादि ।
(द) दो स्वरों के मध्यवर्ती के स्थान पर व होता है जैसे वायव =वायव, प्रिय=पिय, इन्द्रिय=इंदिय
(य) अर्द्धमागधी के गद्य व पद्य की भाषा के रूपों में अन्तर है। स० प्रथमा एकवचन के स्थान पर मागधी की तरह ए प्रयोग होता है और प्रायः पद्य में शौरसैनी के समान 'औ' का प्रयोग है।
समवायागं सूत्र, पृ०६०
१. भगवं च ण अहमाहिए भाषाए धम्ममाइक्खइ । २. कम्परेटिव ग्रामर, भूमिका पृ० १७ ३. प्राकृत सर्वस्व, पृ० १०३
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