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अंगरेजी अनुवाद तैयार किया जो १९३२ में अहमदाबादसे प्रकाशित हुआ । उनके द्वारा ही सम्पादित 'इसिभासिय' भा० २ (१९४३ ई०) प्रकाशित हुए । शुब्रिंग और केल्लटके सम्पादनमें तीन छेदसूत्र " आयारदसाओ, ववहार और निसीह" (१९६६ ई०) हैम्बुर्ग से प्रकाशित हुए। इसी प्रकार जे० एफ० कोलका 'सूर्यप्रज्ञप्ति' (१९३७ इ० ), डब्ल्यु० किफेलका 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' (१९३७ ई०), हम्मका 'गीयत्थविहार' ( महानिशीथका छठा अध्ययन ) ( १९४८ ई०), क्लॉसका 'चउपन्नमहापुरिस चरियं' (१९५५ ई०), नॉर्मनका 'स्थानांगसूत्र'' (१९५६), ऑल्सडोर्फका 'इत्थिपरिन्ना' (१९५८ ई०), ए० ऊनोका 'प्रवचनसार' ( १९६६ ई० ), तथा टी० हनाकीका 'अनुयोगद्वारसूत्र' (१९७०) इत्यादि प्रकाशमें आये । १९२५ ई० में किरफल (Kirfel) ने उपांग 'जीवाजीवाभिगम' के सम्बन्धमें प्रतिपादन कर यह बताया था कि वस्तुतः यह 'जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति' से सम्बद्ध है । सन् १९२६ में वाल्टर शुब्रिगने अपनी पुस्तक 'वोर्त महावीराज' के परिचय में जैनागमोंके उद्भव व विकासके साथ ही उनका साहित्यिक मूल्यांकन भी किया था । सन् १९२९ म्बुर्ग काम्पत्r (Kamptz) ने आगमिक प्रकीर्णकों को लेकर शोधोपाधि हेतु अपना शोध-प्रबन्ध प्रस्तुत कर डॉक्टरेट प्राप्त की थी। जैनागमके टीका - साहित्य पर सर्वेक्षणका कार्य अर्नेस्ट ल्युमनने बहुत ही परिश्रमपूर्वक किया था, किन्तु वे उसे पूर्ण नहीं कर सके । अनन्तर " ओवेरश्चिट् ओवेर दि आवश्यक लिटरेचर" के रूपमें उसे वाल्टर शुब्रिंगने १९३४ ई० में हम्बर्गसे प्रकाशित किया। इस प्रकार जैनागम तथा जैन साहित्यकी शोध-परम्पराके पुरस्कर्ता जरमन विद्वान् रहे हैं। आज भी वहाँ शोध व अनुसन्धानका कार्य गतिमान है । सन् १९३५ में फेडेगन ( Faddegon ) ने सुप्रसिद्ध दिगम्बर जैनाचार्य कुन्दकुन्दके 'प्रवचनसार' का अंगरेजी अनुवाद किया था । इस संस्करणकी विशेषता यह है कि आचार्य अमृतचन्द्रकी 'तत्त्वप्रदीपिका' टीका, व्याख्या व टिप्पणोंसे यह समलंकृत है रही है । इस तरहके प्रकाशनकी ओर हमारा ध्यान जाना चाहिये । वर्तमान युगमें सम्यक् भाव- बोधके लिए सम्यक् दिशामें सम्यक् कार्य होना नितान्त अपेक्षित है ।
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ऐसे अनुवादोंकी कमी आज बहुत खटक
साहित्यिक विधाओं में जैन कथा - साहित्य पर सर्वप्रथम डॉ० जेकोबीने प्रकाश डाला था। इस दिशा - में प्रमुख रूपसे अर्नेस्ट ल्युमनने पादलिप्तसूरिकी 'तरंगवतीकथा' का जर्मन भाषामें सुन्दर अनुवाद 'दाइ नोन' (Die Nonne) के नामसे १९३१ ई० में प्रकाशित किया था । तदनन्तर हर्टेलने जैन कथाओंपर महत्त्वपूर्ण कार्य किया । क्लास हनने "शीलांकके चउपन्नमहापुरिसचरियं" पर शोधोपाधि प्राप्त कर सन् १९५४ में उसे हैम्बर्ग से प्रकाशित किया। आर० विलियम्सने 'मणिपतिचरित' के दो रूपोंको प्रस्तुत कर मूल ग्रन्थका अंगरेजी अनुवाद किया । इस तरह समय-समय पर जैन कथा-साहित्य पर शोध कार्य होता रहा है ।
जैनदर्शनके अध्ययनकी परम्परा हमारी जानकारीके अनुसार आधुनिक कालमें अल्बख्त बेवरके 'फ्रेगमेन्ट आव भगवती' के प्रकाशनसे १८६७ ई० से मानना चाहिए। कदाचित् एच० एच० विल्सनने "ए स्केच ऑव द रिलीजियस सेक्ट्स ऑव द हिन्दूज" (जिल्द १, लन्दन, १८६२ ई० ) पुस्तकमें जैनधर्म तथा जैनदर्शनका उल्लेख किया था । किन्तु उस समय तक यही माना जाता था कि जैनधर्म हिन्दूधर्मकी एक शाखा है । किन्तु बेवर, जेकोबी, ग्लासनेप आदि जरमन विद्वानोंके शोध व अनुसन्धान कार्योंसे यह तथ्य निश्चित व स्थिर हो गया कि जैनधर्म एक स्वतन्त्र दर्शन व मौलिक परम्परा है । इस दृष्टिसे डॉ०
१. संस्कृत एण्ड एलाइड इण्डोलॉजिकल स्टडीज इन यूरोप, १९५६, पृ० ६६ ।
२. प्रोसीडिंग्स ऑव द सेमिनार इन प्राकृत स्टडीज, पूना यूनिवर्सिटी, १९७०, पृ० २१० । ३. वही, पृ० १११ ।
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