________________ 70 आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ कुन्दकुन्दाचार्य की शैली की विशेषता रही है। भगवान् केवली तथा श्रुतकेवली के सान्निध्यपूर्वक अनुग्रह प्राप्त होने से बल-प्राप्त वह स्वानुभव की भूमिका सजीव हो उठी है। उनके विशेष अधिकार की बात कहनी ही क्या ? वे तो दिगंबर परम्परा में सर्वमान्य हैं ही / अन्य जैन सम्प्रदाय तथा आत्म जिज्ञासू अन्य तत्त्वज्ञ भी उनके प्रति समादर रखते हैं। उन का साहित्य अध्यात्म रसिकों को आकर्षण का एकमात्र कारण रहा है / समीचीन-मोक्षमार्ग दिगंबरत्व-श्रामण्य मानों उनके रूप में साकार हुआ हो ! ___ आचार्य अमृतचंद्र ने उनके प्रवचनसार का आत्मा अपनी तत्त्वदीपिका टीका में तो सातिशय विशेष रूप से खोल दिया है। वे भाषाप्रभु और काव्यात्म तत्त्वज्ञ थे। तत्त्वज्ञान के गहराई में जाकर उनकी भाषा तत्त्व और भाव को ठीक स्पर्श करती है। आत्मा के ज्ञान और सुख स्वभाव का वस्तु के द्रव्य गुण पर्याय का उत्पाद व्यय के स्वरूप का अमूर्त कालद्रव्य के स्वरूप का तथा उसके कार्य का आदि सर्वत्र विषयों के निरूपण में सर्वत्र उनके गहराई प्रतीत होती है। सर्व विवेचन तर्कनिष्ठ होकर भी नयों के द्वारा जो समझाया है वह इस ग्रंथ की तत्त्वप्रदीपिका टीका का खास वैशिष्ट्य है। सारत्रयी में से पंचास्तिकाय तथा प्रवचनसार इन दोनों में आचार्यश्री ने आत्मा की मुख्यता से वस्तुतत्त्व के निरूपण के द्वारा भगवान् की तत्वदृष्टि ही खोल कर जिज्ञासुओं के सम्मुख प्रस्तुत की है। इससे अमृतचंद्र आचार्य की टीका का तत्त्वप्रदीपिका नाम सार्थ है। यह तत्त्वदृष्टि ही समयसार में प्रदर्शित स्वपर भेद विज्ञाननिष्ठ जीवनदृष्टि की जिसे टीकाकार आत्मख्याति कहते हैं आधार शिला है / इसलिए इस सारत्रयी का अध्ययन, मनन, चिंतन साधक मुमुक्षुओं के लिए अनिवार्य है। आचार्य कुंदकुंद देव का तथा टीकाकार द्वयों का मुमुक्षु जीवों पर यह महान उपकार है / नमस्कार हो आचार्य कुंदकुंद को! आचार्य अमृतचंद्र को! और आचार्य जयसेन को ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org