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________________ २५१ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय : एक अध्ययन सारांश-१. हिंस्य = ( जिसकी हिंसा की जाती है) द्रव्यभावरूप प्राण । २. हिंसक = (कषायी घातक जीव) ३. हिंसा = (प्राणों का घात) ४. हिंसा फल = (पापों का संचय ) इन चार अवयवों का वास्तविकरूप से विचार करके ही हिंसा का वास्तविक त्याग हो सकता है । इस प्रकार सामान्यरूप से हिंसा अहिंसा का वर्णन करने के अवांतर विशेषरूप से मद्यादिकों के त्याग का विधान करते समय किया गया कार्यकारण भावों का वर्णन भी सातिशय मूलग्राही हुआ है । जैसे मद्यत्याग विधान-मदिरा चित्त को मोहित करती है। मोहितचित्त व्यक्ति को वस्तु धर्म का विस्मरण होता है। और धर्म को विस्मृत करनेवाला जीव निःशंक रूपसे हिंसाचरण करता है । मद्य रसज जीवों की योनिभूत है, मद्यपान में उनकी हिंसा होना अनिवार्य है। साथ ही अभिमान-भय-कामक्रोध आदि विकारों की उत्पत्ति मद्यपान से अविनाभावी है जो विकार स्वयं हिंसारूप है। इसी प्रकार मांस भक्षणादि का वर्णन मननीय ही है और मधु भक्षण में भी भाव हिंसा और द्रव्य हिंसा अवश्यंभावी है । यह शास्त्रों में पापों के नव प्रकार से (मन-वचन-काय-कृत-कारित-अनुमोदना से) होनेवाले त्यागको औत्सर्गिक त्याग (सर्व देश त्याग-जो मुनियों को होता है) और श्रावक को प्रतिमादिकों में होनेवाले त्याग को आपवादिक त्याग कहा है। श्राबक अवस्था में यद्यपि स्थावर हिंसासे अलिप्त रहना अशक्य प्राय है तथापि संकल्पपूर्वक त्रस हिंसाका तो त्याग उसे होना ही चाहिये साथ में व्यर्थ स्थावर हिंसा के त्यागसे भी स्वयं को सावधान एवं अलिप्त रखना आवश्यक ही होता है । संसार में अज्ञान और कषायों की बहुतायतता होने से व्यवहार में ही नहीं परंतु अन्यान्य जैनतर शास्त्रों में भी अज्ञानवश हिंसा का विधान आया है, आश्चर्य यह है की उसे धर्म बतलाया है। वह सामान्य लोगों को चक्कर में डालता है; जिसके कुछ उदाहरण दृष्टांत रूप में (श्लोक ७९ से श्लोक ९० तक) आये हैं। जो मुमुक्षुओं को मार्गदर्शन के लिए पर्याप्त है उन्हें उपलक्षण के रूपमें ही समझना चाहिए। और संकल्पी हिंसा से स्वयं को बचाना चाहिए । जैसे १. धर्म के लिए हिंसा करना दोषास्पद नहीं है। २. देवताओं को बली चढाना चाहिए क्योंकि धर्म देवताओं से ही उत्पन्न होता है। ३. पूज्य व्यक्ति गुरु आदिकों के निमित्त प्राणिघात में दोष नहीं है । ४. बहुत से छोटे छोटे जीवों को मारने के ऐवज में किसी एक बडे का घात करना अच्छा है। ५. किसी एक घातजीव की हत्या करने से बहुत से प्राणियों की रक्षा होती अतः हिंसक प्राणि का घात करना चाहिए। ६. यदि ये हिंस्र-सिंहादि जीवित रहेंगे तो इनसे हिंसा होगी और उन्हें बहुत पाप निर्माण होगा अतः दया भावसे इनको ही मारना अच्छा है । ७. दुःखी दुःख से विमुक्त होंगे अतः दुःखीयों को मारना अच्छा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211368
Book TitlePurusharth Siddhyupaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikchand Chavre
PublisherZ_Acharya_Shantisagar_Janma_Shatabdi_Mahotsav_Smruti_Granth_012022.pdf
Publication Year
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Achar
File Size846 KB
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