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________________ Jain Exa ५२२ : मुनि श्री हजारीमल स्मृति ग्रन्थ : द्वितीय श्रध्याय है. अव्यय प्रजापति से मन, अक्षर से प्राण और क्षर से शरीरभाग का निर्माण होता है. इस प्रकार जो प्रजापति है वही पुरुष है और पुरुष को प्राजापत्य कहना सर्वथा समीचीन है. वैदिक दृष्टि के अनुसार पुरुष दीन-हीन दासानुदास या शरणागत प्राणी नहीं है. वह है प्रजापति के निकटतम उसकी साक्षात् प्रतिमा. सहस्रात्मा प्रजापति का जो केन्द्र था, उसी की परम्परा में पुरुष प्रजापति के केन्द्र का भी विकास होता है. जो सहस्र के केन्द्र की महिमा थी, वही पुरुष के केन्द्र की भी है. सहस्रात्मा वनसंज्ञक प्रजापति का केन्द्र प्रत्येक अश्वत्थ-संज्ञक प्रजापति में होता है, और वही विकसित होता हुआ प्रत्येक सूर्य में और प्रत्येक मानव में अभिव्यक्त होता है. इसीलिए कहा जाता है कि जो पुरुष सूर्य में है, वहीं मानव में है. वैदिक भाषा में केन्द्र को ही हृदय कहते हैं. केन्द्र को ही ऊर्ध्व और नाभि भी कहा जाता है. केन्द्र ऊर्ध्व और उसकी परिधि अधः है. चक्र की नाभि उसका केन्द्र और उसकी नेमि उसका बाह्य या महिमा भाग है. केन्द्र से चारों ओर रश्मियों का वितान होता है. केन्द्र को उक्थ भी कहते हैं, क्योंकि उस केन्द्र से चारों ओर रश्मियाँ उत्पन्न होती और फैलती हैं. इन रश्मियों को उक्थ की सापेक्षता से अर्क कहा जाता है. जिस प्रकार सूर्य से सहस्रों रश्मियां चारों ओर फैलती हैं, और फिर एक-एक से सहस्र - सहस्र होकर बिखर जाती हैं, यहां तक कि तनिक-सा भी स्थान उनसे विरहित या शून्य नहीं रह जाता और उनकी एक चादर- -जैसी सारे विश्व में फैल जाती है, वैसे ही पुरुष के केन्द्र या उक्थ से अर्क या रिश्मयों का विकास होता है. सहस्रधा महिमानः सहस्रम् अर्थात् केन्द्र भी महिमा सहस्ररूप से व्यक्त होती है. और फिर उसकी रश्मियाँ सहस्र सहस्र रूप से बंट जाती हैं. जहाँ केन्द्र और परिधि की संस्था है, वहाँ सर्वत्र यही वैज्ञानिक नियम कार्य करता है. इस प्रकार जो पुरुष का आत्मकेन्द्र हृदय है, वह विश्वात्मा सहस्र या प्रजापति का ही अत्यन्त विलक्षण और रहस्यमय प्रतिबिम्ब है. ऐसा यह पुरुष प्रजापति की महिमा से महान् है. साढ़े तीन हाथ के शरीर में परिमित होते हुए भी यह त्रिविक्रम विष्णु के समान बिराट है. गीता में जो कहा है 'ईश्वरः सर्वभूतानां न तिष्ठति' वह इसी तत्व की व्याख्या है वैदिक में संदेह और अनास्था का स्थान ही नहीं है. यहां तो जो पूर्ण पुरुष है, जो समस्त विश्व में भरा हुआ है, वही पुरुष के केन्द्र या हृदय में भी प्रकट हो रहा है. वह पुरुष वामन भी कहा जाता है. विराट् प्राण की अपेक्षा सचमुच वह वामन है. यह जो मानव के केन्द्र या हृदय में वामन - मूर्ति भगवान् है इसे ही व्यान प्राण भी कहा जाता है. जो प्राण और अपान इन दोनों को संचालित करता और जीवन देता है. इस व्यान प्राण की शक्ति बड़ी दुर्घर्ष है. इसके ऊपर सौर जगत् के प्राण और पार्थिव जगत् के अपान इन दोनों का घर्षण या आक्रमण निरन्तर होता रहता है, किन्तु वह वामनमूर्ति विष्णु विराट् का प्रतीक है. यह किसी तरह पराभूत नहीं होता. यदि यह वामन या मध्यप्राण हमारे केन्द्र में न हो तो सौर और पार्थिव प्राण अपान का प्रचण्ड धक्का न जाने हमारा किस प्रकार विस्त्रसन कर डाले. उपनिषद् में कहा है : न प्राणेन नावानेन जीवति कश्चन इतरेण तु जीवन्ति पा जिस केन्द्र या मध्यस्थ प्राण में ऊर्ध्वगति प्राण और अधोगति अपान दोनों की ग्रन्थि है, उसकी पारिभाषिक संज्ञा व्यान है. उसी को यहां सांकेतिक भाषा में इतर कहा गया है. प्राण-आन दोनों उसी के आश्रय से संचालित होते हैं. और भी : 'मध्ये वामनमासीनं सर्वे देवा उपासते'. , यह केन्द्र या मध्यप्राण या वामन इतना सशक्त और बलिष्ठ है कि सृष्टि के सब देवता इसकी उपासना करते हैं. इसी दृढग्रन्थिबन्धन या बल से इतर सब देवों के बल सन्तुलित होते हैं. यह वामनरूपी मध्यप्राण ही समस्त विश्व में अपनी रश्मियों से फैल कर विराट् या वैष्णवरूप धारण करता है. विष्णुरूप महात्राण ही हृदयस्थ वामन के रूप में सब प्राणियों के भीतर प्रतिष्ठित है. इसी के लिये कहा जाता है : 'सहि वैष्णवो यद् वामनः ' - शत. ५.२.५४. mibrary.org
SR No.211367
Book TitlePurush Prajapati
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherZ_Hajarimalmuni_Smruti_Granth_012040.pdf
Publication Year1965
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size2 MB
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