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पुरातत्त्व मीमांसा संख्यक समाज की श्रद्धा के अनुसार ऐसे किसी सर्वज्ञ व्यक्ति का अस्तित्व हो सकता है या नहीं, यह एक बड़ा भारी विवादास्पद विषय है जो बहुत प्राचीनकाल से चला आ रहा है और सर्वज्ञ के अस्तित्व - अनस्तित्व पर आज तक असंख्य विद्वानों के अनन्त शङ्का-समाधान होते चले आये हैं । परन्तु मेरा कहना तो यह है कि विशुद्ध चक्षुओं से देखा जा सके ऐसे सर्वज्ञ का अस्तित्व प्रमाणित करने वाला कोई प्रत्यक्ष प्रमाण तो आज तक चिकित्सक संसार में किसी ने स्वीकार नहीं किया । अस्तु इस 'सर्वज्ञ' के विषय में कुछ भी हो इतनी बात तो अवश्य है कि किसी-किसी मनुष्य में ज्ञान शक्ति का इतनी अधिक मात्रा में विकास अथवा प्रकर्ष होता है कि दूसरों के लिए उसका माप करना अशक्य होता है । शब्दशास्त्र की व्युत्पत्ति के अनुसार ऐसे व्यक्ति को यदि 'सर्वज्ञ' नहीं कह सकते तो भी उसको बहुज्ञ अथवा अनल्पज्ञ तो अवश्य ही कहा जा सकता है। ऐसे एक बहुज्ञ व्यक्ति की ज्ञान शक्ति की तुलना में दूसरे साधारण लाखों अथवा करोड़ों मनुष्यों की एकत्रित ज्ञानशक्ति भी पूरी पड़ सके- ऐसी बात नहीं है ।
इतिहास - अतीतकाल से संसार में ऐसे असंख्य अनल्पज्ञ व्यक्ति उत्पन्न होते आये हैं और जगत को अपनी अगाध ज्ञान शक्तियों की अमूल्य देन सौंपते रहे हैं। फिर भी, इस जगत के विषय में मनुष्यजाति आज तक भी बहुत थोड़ा ही जान पाई है। यह अभी तक भी वैसा का वैसा अगम्य और अज्ञेय बना हुआ है । जगत की अन्य वस्तुओं को रहने दीजिए—मनुष्य जाति अपने ही विषय में अब तक कितना जान सकी है ? जिस प्रकार मानव संस्कृति के प्रथम निदर्शक और संसार में साहित्य के आदिम ग्रन्थ ऋग्वेद में ऋषियों ने मनुष्य जाति के इतिहास को लक्ष्य करके पूछा है कि
को ददर्श प्रथमं जायमानम् ?
' सबसे प्रथम उत्पन्न होने वाले को किसने देखा है ? उसी प्रकार आज बीसवीं शताब्दी के तत्त्वज्ञानी भी ऐसे ही प्रश्न पूछ रहे हैं ।
जगत के प्रादुर्भाव के विषय में जिस प्रकार सत्युगीन नासदीय सूक्त का रचयिता महर्षि जानने की इच्छा करता था कि
को अद्धा वेद क इह प्रवोचत्, कुत आ जाताः कुत इयं विसृष्टि ।
'इस जगत का पसारा कहाँ से आया है - और कहाँ से निकला है, यह कोई जानता है ? अथवा कोई बतलाता है ?' उसी प्रकार आज इस कलियुग के तत्त्वजिज्ञासु भी ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए तड़प रहे हैं। ऐसा यह जगत-तत्त्व अतिगूढ़ और अगम्य है । गुजराती भक्त कवि अखा के शब्दों में सचमुच यह एक अँधेरा कुआ है जिसका भेद आज तक कोई पा नहीं सका है। फिर भी, मानवी - जिज्ञासा और ज्ञानशक्ति ने इस 'अन्ध-कूप' की ग्रन्थि को सुलझाने के लिए भगीरथ प्रयत्न किया है। इस कुए के गहरे पानी पर छाई हुई घनी नीली शैवाल को जहाँ-तहाँ से हटाकर इसके जल कणों का आस्वाद करने के लिए बड़ी-बड़ी आपत्तियाँ उठाई हैं। गूढ़तर और गूढ़तम ज्ञात होने वाले इस जगत् के कुछ रूपों को मनुष्य ने पहचाना है ।
सृष्टि के स्वाभाविक नियमानुसार वर्षा ऋतु में आकाश पर उमड़ते-घुमड़ते हुए बादलों, उनके
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आचार्य प्रवल अभिनंदन आआनन्दाय
आपायप्रत अभिनन्दन
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