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________________ पालि भाषा के बौद्ध ग्रन्थों में जैन धर्म ११ जिनके चलाये श्राचारविचार के नियम उस समय श्राजीवकों, निर्ग्रन्थों और बुद्ध के सामने थे। जो हो, पर महासीहनाद और महासच्चक सूत्रों में अचेलकों के नाम से जिन श्राचारों का वर्णन दिया गया है वे ही श्राचार ariग, दशवैकालिक श्रादि सूत्रों में निर्ग्रन्थों के प्रचार के रूप में वर्णित हैं। उन सूत्रों में उनका वर्णन संक्षेप में यों है: "अचेलक रहना, मुक्ताचार होना (स्नान, दातुन नहीं करना, खड़े होकर भोजन करना ), हाथ चाटकर खाना, आइये भदन्त ! खड़े रहिये भदन्त ! ऐसा कोई कहे तो उसे सुना अनसुना कर देना, सामने लाकर दी हुई भिक्षा का, अपने उद्देश्य से बनाई हुई भिक्षा का और दिये गये निमन्त्रण का अस्वीकार जिस बर्तन में रसोई पकी हो, उसमें सीधी दी गई भिक्षा का तथा खल आदि में से दी गई भिक्षा का अस्वीकार, भोजन करते हुए दो में से उठकर एक के द्वारा दी जाने वाली भिक्षा का, गर्भिणी स्त्री के द्वारा दी हुई भिक्षा का और पुरुषों के साथ एकान्त में स्थित स्त्री के द्वारा दी जाने वाली भिक्षा का अस्वीकार,.. कभी एक घर से एक कौर, कभी दो घर से दो कौर श्रादि भिक्षा लेना, तो कभी एक उपवास, कभी दो उपवास आदि करते हुए पन्द्रह उपवास करना, दाढ़ी-मूंछों का लुंचन करना, खड़े होकर और उक्कडु श्रासन पर बैठकर तप करना, स्नान का सर्वथा त्याग करके शरीर पर मल धारण करना, इतनी सावधानी से जानाना कि जल के या अन्य किसी सूक्ष्म जन्तु का घात न हो, कड़ी ठंड में खड़े रहना आदि आदि । " तपस्या जैन साधु जीवन का मुख्य अंग था। उसके कारण जैनमुनि दीघतपस्सी जैसा नाम भी पाते थे। वे लोग तपस्या का श्राचरण प्रायः खड़े होकर ( उब्भट्टको ), श्रासन छोड़कर ( श्रासन परिक्खित्तो ) करते थे। वह तपस्या बड़ी दुःखकर, तीव्र ( तिप्पा ) एवं कड़वी (कटुका) होती थी । ' चतुर्यामसंवर : दीघनिकाय के सामञ्ञफलसूत्र में निगण्ठनाथपुत्त को चतुर्यामसंवर से संवृत लिखा है। वहां चतुर्याम संवर का अर्थ दिया गया है— सब प्रकार के पानी से संवृत (सब्बवारिवारितो) सभी पापों से निवृत (सब्बवारियत्तो) सभी पापों की शुद्धि होने से संवृत (सब्बावारि धुतो) सभी पाप हानि से सुख अनुभव करने वाला -- सब्बवारि पुट्ठो । पालि का यह चतुर्याम संवर हमें जैनागमों के चाउज्जाम (चतुर्याम) की याद दिलाता है जिसका अर्थ होता है चार व्रत - अहिंसा, सत्य, अचौर्य और अपरिग्रह | इन चतुर्यामों को, जैनागमों के अनुसार, , उपदेश देने वाले भग० पार्श्वनाथ थे जो कि भग० महावीर से २५० वर्ष पहले हुए थे । महावीर ने इन चार यामों में एक और याम - ब्रह्मचर्यव्रत- मिलाकर पञ्चयाम अर्थात् पञ्चमहाव्रतों की स्थापना की । पर उक्त पालि सूत्र में चतुर्याम संवर का जो अर्थ दिया गया है वह एकदम भ्रान्त एवं अस्पष्ट है । निर्ग्रन्थ परम्परा के यथार्थ चतुर्याम संवर से भग० बुद्ध या उनकी समकालीन शिष्यमण्डली अच्छी तरह परिचित न रही हो सो बात नहीं । मज्झिम निकाय के चूलसकुलदायि एवं संयुत्तनिकाय के गामिणि संयुत्त के आठवें सूत्र से मालूम होता है कि प्राणातिपात ( हिंसा), अदिन्नादान (चोरी), कामेसु मिच्छाचार (ब्रह्मचर्य), मुसावाद (असत्य) से विरक्त होनेका उपदेश भगवान् महावीर सदा देते थे। तथापि इन सूत्रों में उन बातों का चतुर्यामसंवर नाम से उल्लेख नहीं किया गया। बौद्धपरम्परा में निर्ग्रन्थपरम्परा के इन चतुर्याम या पञ्चयामों का एक रूपान्तर पञ्चशील एवं दशशील के रूप में प्रतिपादन किया गया है तथा वे उवत नाम से ही वहां समझे गये हैं। महावीर और बुद्ध के समय के चतुर्याम संवर को बौद्ध भिक्षु जानते अवश्य थे पर पीछे उसके अर्थसूचक तत्त्वों का अपने ग्रन्थों में नामान्तर देख जैन परम्परा के अर्थ को भूल गये । मालूम होता है कि पीछे जब पालिपिटकों का संकलन हुआ तो उस समय चतुर्याम संवर का अर्थ देने की आवश्यकता पड़ी और किसी बौद्ध भिक्षु ने अपनी कल्पना से उक्त अर्थ की योजना कर दी। जो हो, पर चतुर्याम का ठीक अर्थ वहां नहीं दिया गया। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि महावीर की अहिंसा की १. मज्झिमनिकाय, चूलदुक्खवखन्धरात्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211349
Book TitlePali Bhasha ke Bauddh Grantho me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherZ_Vijay_Vallabh_suri_Smarak_Granth_012060.pdf
Publication Year1956
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size595 KB
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