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३. रात्रि भोजन-विरमण - भगवान् पार्श्व के शासन में रात्रि भोजन न करना व्रत नहीं था । भगवान् महावीर ने उसे व्रत की सूची में सम्मिलित कर लिया। यहां सूत्रकृतांग : १ / ६ / २८ का वह पद फिर स्मरणीय है- " से वारिया इत्थि सराइभत्तं । " हरिभद्र सूरि ने इसकी चर्चा करते हुए बताया कि भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर ने अपने ऋजु जड़ और वक्र- जड़ शिष्यों की अपेक्षा से रात्रि भोजन न करने को व्रत का रूप दिया और उसे मूल गुणों की सूची में रखा। मध्यवर्ती तीर्थकरों ने उसे मूलगुण नहीं माना इसलिए उन्होंने उसे व्रत का रूप नहीं दिया । 19 सोमतिलक सूरि का भी यही अभिमत है । 17
मूलगुणे उदुव्हं, सेसाणुत्तरगुणेसु निसिभुत्तं ।
हरिभद्रसूरि से पहले ही यह मान्यता प्रचलित थी। जिनभद्रगणि ने लिखा है कि "रात को भोजन नहीं करना" अहिंसा त का संरक्षक होने के कारण समिति की भांति उत्तर गुण है । किन्तु मुनि के लिए वह अहिंसा महाव्रत की तरह पालनीय है । इस दृष्टि से वह मूलगुण की कोटि में रखने योग्य है । 18 श्रावक के लिए वह मूलगुण नहीं हैं। 19 जो गुण साधना के आधारभूत होते हैं, उन्हें "मौलिक" या "मूलगुण" कहा जाता है । उनके उपकारी या सहयोगी गुणों को उत्तरगुण" कहा जाता है। जिनभद्र गणी ने मूलगुण की संख्या ५ और ६ दोनों प्रकार से मानी है:
१. अहिंसा
२. सत्य ३. अचौर्य
आचार्य वट्टकेर ने मूलगुण २८ माने हैं-
अस्नान
पांच महाव्रत पांच समितियां
भूमिशयन
पांच इन्द्रिय-विजय
दन्तघर्षन का वर्जन स्थिति भोजन
एक भुक्त
षड् आवश्यक
केश लोच अचेलकता
४. ब्रह्मचर्यं ५. अपरिग्रह
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६. रात्रि भोजन- विरमण
ऋजु
१६. कालिक, हारिभद्रीय वृत्ति प. १५० एतच्च रात्रिभोजनं प्रथमचरमतीर्थंकर तीर्थं योः जवजदपुरुषापेक्षा मूलगुणत्वख्यापनार्थ महायतोपरि पठितं, मध्यम तीर्थंकरतीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञ पुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति ।
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१७. सप्ततिशत स्थान गाथा २८७
मूलगुणेषु उदुह्वंसेसाणुत्तरगुणेसु निसिभुत्तं । १८. विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२४७ वृत्तिः उत्तरगुणत्वे सत्यपि तत् साधो भण्यते मूलगुणपालनात् प्राणातिपातादिविरमणवत् अन्तरंगत्वाच्च । १९ विशेषावश्यक भाष्य गाथा १२४५-१२५० २०. वही गाथा १२४४ सम्मत समेयांइ, मूलगुणा ।
२१ . वही गाथा १८२९ मूलगुण छब्वयाई तु २२. मूलाचार ११२-११३
वी. नि. सं. २५०३
महव्वयाणुव्वयाइ
महागुणों की संख्या सब तीर्थंकरों के शासन में समान नहीं रही, इसका समर्थन भगवान् महावीर के निम्न प्रवचन से होता है:
"आर्यो १ – मैंने पांच महाव्रतात्मक, सप्रतिक्रमण और अचेल धर्म का निरूपण किया है। आर्यों-मैंने नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, दन्तप्रक्षालन-वर्जन, छत्र-वर्जन, पादुका वर्जन भूमि व्या केश- लोच आदि का निरूपण किया है । 23
भगवान् महावीर के जो विशेष विधान हैं, उनका लंबा विवरण स्थानांग ९/६९२ में है।
४. सचेल और अचेल - गौतम और केशी के शिष्यों के मन में एक वितर्क उठा था-
"महामुनि वर्द्धमान ने जो आचार धर्म की व्यवस्था की है, वह अचेलक है और महामुनि पार्श्व ने जो यह आचार धर्म की व्यवस्था की है, वह वर्ष आदि से विशिष्ट तथा मूल्यवान वस्त्रवाली है। जबकि हम एक ही उद्देश्य से चले हैं तो फिर इस भेद का क्या कारण हैं ? "केशी ने गौतम के सामने वह जिज्ञासा प्रस्तुत की और पूछा -- "मेधाविन् ! वेष के इन प्रकारों में तुम्हें संदेह कैसे नहीं होता ।"
"केशी के ऐसा कहने पर गौतम ने इस प्रकार कहा - "विज्ञान द्वारा यथोचित जानकर ही धर्म के साधनों उपकरणों की अनुमति दी गई है। लोगों को यह प्रतीत हो कि ये साधु, हैं, इसलिए नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना की गई है। जीवन यात्रा को निभाना और "मैं साधु हूँ" ऐसा ध्यान आते रहना वेष धारण के इस लोक में ये प्रयोजन हैं। यदि मोक्ष की वास्तविक साधना की प्रतिज्ञा हो तो निश्चय-दृष्टि में उसके साधन, ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही हैं। 24
भगवान् पार्श्व के शिष्य बहुमूल्य और रंगीन वस्त्र रखते थे । भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों को अल्पमूल्य और श्वेत वस्त्र रखने की अनुमति दी ।
डा. हर्मन जेकोबी का यह मत है कि भगवान् महावीर ने अचेलकता या नग्नत्व का आचार आजीवक आचार्य गोशालक से ग्रहण किया । किन्तु यह संदिग्ध है। भगवान् महावीर के काल में और उनसे पूर्व भी नग्न साधुओं के अनेक सम्प्रदाय थे । भगवान् महावीर ने अचेलकता को किसी से प्रभावित होकर अपनाया या अपनी स्वतंत्र बुद्धि से, इस प्रश्न के समाधान का कोई निश्चित स्रोत प्राप्त नहीं है। किन्तु इतना निश्चित है कि महावीर दीक्षित हुए तब सचेल थे, बाद में अचेल हो गये । भगवान् ने अपने शिष्यों
२३. स्थानांग ९ / ६२
२४. उत्तराध्ययन २३ / २९-३३
२५. दी सेक्रेड बुक आफ दी ईस्ट, भाग ४५ पृ. ३२
It is probable that he borrowed then from the Ake'lakas or Agivakas, the followers of Gosala.
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