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पातंजल योग और जैन योग एक तुलनात्मक विवेचन / १५
द्वारा चित्तमलों को धोना श्रान्तरिक शौच कहलाता है ।" ' ज्ञाताधर्मकथा' में शुक परिव्राजक इसी प्रकार के शोचधर्म का व्याख्यान करता है ।
जैन - परम्परा में योगी के लिए इस प्रकार के बाह्य शौच का कोई महत्त्व नहीं है । 'ज्ञाताधर्म कथा' में बाह्य शौच का प्रालंकारिक रूप से निराकरण किया गया है। मल्ली चोक्खा परिव्राजिका से कहती है कि जिस प्रकार रुधिरलिप्त वस्त्र रुधिर में धोने से शुद्ध नहीं होता है, उसी प्रकार प्राणातिपात रूप मिथ्यादर्शन शल्य से किसी प्रकार की शुद्धि नहीं होती है। बाह्यशुद्धि तो सभी संसारीजन करते ही हैं ।
पद्मनन्दि ने भी कहा है-"यदि प्राणी का मन मिथ्यात्वादि दोषों से मलिन हो रहा है तो गंगा, समुद्र एवं पुष्कर आदि सभी तीर्थों में सदा स्नान करने पर भी प्राय: अतिशय विशुद्ध नहीं हो सकता जिस प्रकार मद्य के प्रवाह से परिपूर्ण घट को बाहर से अनेक बार धोने से शुद्ध नहीं होता, उसी प्रकार जलादि से पवित्रता नहीं आती है ।
पवित्र जल से
योगदर्शन के प्रान्तरिक शौच की तरह जैनदर्शन में प्रान्तरिक शुद्धि को महत्वपूर्ण माना गया है । इस आन्तरिक शुद्धि के लिए जैनदर्शन में महाव्रत की भावनाओं, गुप्तियों, समितियों का श्राचरण करना योगी के लिए अनिवार्य होता है ।
बारह भावनाएं — जैन योग सिद्धांत में अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, अशौच, श्राश्रव, संवर, निर्जरा, धर्म, लोक और बोधिदुर्लभ – ये बारह भावनाएँ बतलाई गई हैं । इनके बार-बार चिन्तन से समदृष्टि या समत्व का भाव विकसित हो जाता है मन के समस्त दोष नष्ट हो जाते हैं । मोक्ष रूपी महल पर चढ़ने के लिए योगाचार्यों ने इन्हें प्रथम सीढ़ी कहा है । "
मैत्री, करुणा आदि भावना- प्रान्तरिक शुद्धि के लिए योगदर्शन की तरह जैनदर्शन में भी मंत्री आदि भावनाओं का चिन्तन करने की प्रेरणा दी गई है। उमास्वाति ने प्राणीमात्र में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में करुणा वृत्ति और प्रविनेयों में माध्यस्थ भाव की भावना करने की प्रेरणा दी है।"
शुभचन्द्राचार्य ने कहा कि मंत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्य भावनाओं का मोह नष्ट करने और धर्मध्यान करने के लिए चित्त में चिन्तन करना चाहिए ।"
१. सुरेन्द्रनाथदास गुप्ता, भा. द. ई. भाग १, पृष्ठ २७७
२. शाताधर्मकयांगसूत्र (सम्पादक पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल), पृष्ठ १९२
३. वही, पृष्ठ २९०
४. पं. वि. १९५
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५. त. सू. ९७
६. ज्ञानार्णव २।५-७ वारसवेक्खा ८९-९१
७. त. सू. ७।६
८. ज्ञानार्णव २७१४, १५-१६ और हेमचन्द्र योगशास्त्र ४।११७, १२२, मैत्री, करुणा धादि चारों भावनाओं के विस्तृत स्वरूप के विवेचन के लिए दृष्टव्य ज्ञानार्णव २७-५, हेमचन्द्र योगशास्त्र ११८-१२१ ।
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आसनस्थ तम आत्मस्थ मन
तब हो सके आश्वस्त जन
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