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प्राचीन आगम साहित्य पर्युषण पर्व का इतिहास भारत पर्वो (त्योहारों) का देश है। वैसे तो प्रत्येक मास में कोई न कोई पर्व आता ही है, किन्तु वर्षा ऋतु में पर्वो की बहुलता है जैसे - गुरुपूर्णिमा, रक्षाबन्धन, जन्माष्टमी, ऋषि पञ्चमी, गणेश चतुर्थी, अनन्त चतुर्दशी, श्राद्ध, नवरात्र, दशहरा, दीपावली आदि-आदि।
वर्षा ऋतु का जैन परम्परा का प्रसिद्ध पर्व पर्यषण है। जैन परम्परा में पर्वो को दो भागों में विभाजित किया गया है- एक लौकिक पर्व और दूसरा आध्यात्मिक पर्व। पर्युषण की गणना आध्यात्मिक पर्व के रूप में की गई है। इसे पर्वाधिराज कहा गया है।
आगमिक साहित्य में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर पर्युषण पर्व का इतिहास दो सहस्र वर्ष से भी अधिक प्राचीन प्रतीत होता है। यद्यपि प्राचीन आगम साहित्य में इसकी निश्चित तिथि एवं पर्व के दिनों की संख्या का उल्लेख नहीं मिलता है। मात्र इतना ही उल्लेख मिलता है कि भाद्र शुक्ला पञ्चमी का अतिक्रमण नहीं करना चाहिये।
वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा में और दिगम्बर परम्परा में यह पर्व अलग अलग दिन से मनाता है।
• मूर्तिपूजक सम्प्रदाय इसे भाद्र कृष्ण द्वादशी से भाद्र शुक्ल चतुर्थी तक तथा . स्थानकवासी और तेरापंथी सम्प्रदाय इसे भाद्र कृष्ण त्रयोदशी से भाद्र-शक्ल पञ्चमी तक • दिगम्बर परम्परा में भाद्र शुक्ल पञ्चमी से भाद्र शुक्ल चतुर्दशी तक मनाया जाता है। उसमें
इसे दशलक्षण पर्व के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में यह अष्ट दिवसीय और दिगम्बर परम्परा में दश दिवसीय पर्व है। इसके जितने प्राचीन एवं विस्तृत ऐतिहासिक उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में प्राप्त हैं, उतने दिगम्बर परम्परा में नहीं हैं। यद्यपि दस कल्पों (मुनि के विशिष्ट आचारों) का उल्लेख श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों परम्पराओं में पाया जाता है। इन कल्पों में एक 'पज्जोसवणकप्प' (पर्युषण कल्प) भी है। श्वेताम्बर परम्परा के बृहद्-कल्प भाष्य' में, दिगम्बर परम्परा के मूलाचार में और यापनीय परम्परा के ग्रन्थ भगवती आराधना में इन दस कल्पों का उल्लेख है। किन्तु इन ग्रन्थों की अपेक्षा भी अधिक प्राचीन श्वेताम्बर छेदसूत्र-आयारदशा (दशाश्रुतस्कन्ध) तथा निशीथ में 'पज्जोसवण' का उल्लेख है। आयारदशा के आठवें कल्प का नाम ही पर्युषण कल्प है, जिसके आधार पर ही आगे चलकर कल्पसूत्र की रचना हुई है और जिसका आज तक पर्युषण के दिनों में वाचन होता है।
1 आचेलकुद्देसिय सिज्जायर रायपिंड कितकम्मे। वात जेट्ठ पडिक्कमणे मासं पज्जोसवण कप्पे।। - बृहत्कल्पभाष्य, संपा0 - पुण्यविजयजी, प्रका0 - आत्मानंद जैन सभा, भावनगर, वि. सं. 1998, 63641 2 मूलाचार, वट्टकेराचार्य, प्रका0 - जैनमन्दिर शक्कर बाजार, इन्दौर की पत्रकार प्रति, समयसाराधिकार, 181 3 भगवती आराधना, शिवकोट्याचार्य, प्रका0 - सखाराम नेमिचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रन्थामाला, शोलापुरु 1935, 423| Page |2