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आ. शांतिसागरजी जन्मशताब्दि स्मृतिग्रंथ
आगे निरंजन का स्वरूप बतलाते हुए स्पष्ट किया है
जासु ण वण्णु ण गंधु रसु जासु ण सगुण फालु । जाणुण जम्म मरणु णवि णाउ णिरंजणु तासु ॥ १९ ॥
जासु ण कोहु ण मोहु मउ जामु ण माय ण माणु । सुंठ झा जियसो जि णिरंजणु जाणु ॥ २० ॥
ण
जिसके न वर्ण, न गन्ध, न रस, न शब्द, न स्पर्श है। जिसके जन्म, मरण, क्रोध, मद, मोह,, मान और माया नहीं है । जिसके कोई गुणस्थान, ध्यान भी नहीं है उसे निरंजन कहते हैं ।
परमात्मा की परिभाषा करते हुए कहा है
जसु अब्मंतरि जगु वसह जगव्यंतरि जो जि ।
जि वसंतु विज जिण वि मुणि परमप्पर सो जि ॥
जिसकी आत्मा जगत् बस रहा है ( प्रतिबिंबीत ) हो रहा है । वह जगत् में निवास करता हुआ भी जगत् रूप नहीं होता उसीको परमात्मा जानो ।
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जीवन के चरम सत्य की तर्क संगत अनुभूति एवं अन्तश्चेतना की जागृति आत्मा को ऐसी अवस्था में केन्द्रित कर देती है जो ईश्वर को साक्षात्कार का संकेत देती है । परमात्मा की ओर अग्रसर करनेवाली प्रबुद्ध चेतना स्वयं में ही अद्वैत भाव से परमात्मा का दर्शन करने लग जाती है। इसको ग्रन्थकार ने कहा है
मणु मिलिप परमेसरहं परमेसरु वि मणस्स ।
वीहि व समरसि हू वाहं पुज्न चडावडं कस्स ॥ १२५ ॥
जिसका मन भगवान् आत्मा से मिल गया तन्मयो हो गया और परमेश्वर भी मनसे मिल गया, इन दोनों के समरस होने पर मैं अब किसकी पूजा करूँ ?
आध्यात्मिकता का उद्देश उस परम सत्य का साक्षात्कार करना है जो रिद्धि, सिद्धि और धन सम्पदा से परे है । वह तो इन जड चेतन का ज्ञाता दृष्टा मात्र है। उनका परिणमन जब जैसा होता है उसे वह जनता भर है, उसमें हर्ष विषाद नहीं करता । यही उसका समता भाव है ।
दुक्खुव बहु बिहउ जीवहं कम्मु जणेह |
अप्पा देख मुई पर णिच्छउ एवं भणेई ॥ ६४ ॥
जीवों के अनेक तरह के सुख दुख दोनों ही कर्म ही उपजाता है आत्मा उपयोगमयी होने से केवल देखता जानता है, इस प्रकार निश्चयनय कहता है । यहां सुख दुख सामग्री का सम्बन्ध कर्म से है ।
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