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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन बुद्ध नन्द को उपदेश देते हुए कहते हैं कि जिसके पास स्मृति नहीं गनेंट ने आचरण में विवेक के लिए उन समग्र परिस्थितियों एवं है उसे आर्यसत्य कहाँ से प्राप्त होगा। इसलिए चलते हुए 'चल रहा सभी पक्षों का विचार आवश्यक माना है जिनमें कर्म किया जाना है। हैं', खड़े होते हुए 'खड़ा हो रहा हूँ' एवं इसी प्रकार दूसरे कार्य करते वह कर्म के सभी पक्षों पर विचार आवश्यक मानता है, जिसे हम समय अपनी स्मृति बनाये रखो। इस प्रकार हम देखते हैं कि बुद्ध जैन-दर्शन के अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के द्वारा सम्यक् प्रकार से भी आत्मचेतनता को नैतिक जीवन का केन्द्र स्वीकार करते हैं। स्पष्ट कर सकते हैं। जैन-दर्शन की अनेकान्तवादी धारणा भी यही
गीता में भी सम्मोह से, स्मृति-विनाश और स्मृतिविन्यास से। निर्देश देती है कि विचार के क्षेत्र में हमें एकांगी दृष्टिकोण रखकर बुद्धि-नाश कहकर यही बताया गया है कि आत्मचेतना नैतिक जीवन
निर्णय नहीं लेना चाहिए वरन् एक सर्वांगीण दृष्टिकोण रखना चाहिए। के लिए एक आवश्यक तथ्य है।
इस प्रकार गर्नेट का सभी पक्षों के विचार का प्रत्यय जैन-दर्शन के
अनेकान्तवादी सर्वांगीण दृष्टिकोण से अधिक दूर नहीं है। विवेकवाद' और जैनदर्शन ।
मानवतावादी विचारकों में दूसरा वर्ग विवेक को प्राथमिक मानवीय आत्मसंयम का सिद्धान्त और जैनदर्शन गुण स्वीकार करता है। सी०बी०गर्नेट और इस्राइल लेविन के अनुसार मानवतावादी नैतिक दर्शन के तीसरे वर्ग का प्रतिनिधित्व इरविंग नैतिकता विवेकपूर्ण जीवन जीने में है। गर्नेट के अनुसार विवेक-संगति बबिट करते हैं। १९ बबिट के अनुसार मानवता एवं नैतिक जीवन का नहीं वरन् जीवन में कौशल या चतुराई का होना है। बौद्धिकता या सार न तो आत्मचेतन जीवन जीने में है और न विवेकपूर्ण जीवन तर्क उसका एक अंग हो सकता है समग्र नहीं। गर्नेट, अपनी पुस्तक में, वरन् वह संयमपूर्ण जीवन या आत्म-अनुशासन में है। बबिट "विज्डम आफ कन्डक्ट" में प्रज्ञा को ही सर्वोच्च सद्गुण मानते हैं आधुनिक युग के संकट का कारण यह बताते हैं कि हमने परम्परागत
और प्रज्ञा या विवेक से निर्देशित जीवन जीने में नैतिकता के सार- कठोर वैराग्यवादी धारणाओं को तोड़ दिया और उनके स्थान पर ठीक तत्त्व की अभिव्यक्ति मानते हैं। उनके अनुसार नैतिकता की सम्यक् रूप से आदिम भोगवाद को ही प्रस्तुत किया है। वर्तमान युग के विचारकों एवं सार्थक व्याख्या शुभ-उचित कर्तव्य आदि नैतिक प्रत्ययों की व्याख्या ने परम्परागत धारणाओं के प्रतिवाद में एक ऐसी गलत दिशा का चयन में नहीं वरन आचरण में विवेक के सामान्य प्रत्यय में है। आचरण किया है. जिसमें मानवीय हितों को चोट पहुँची है। उनका कथन है में विवेक एक ऐसा तत्त्व है जो नैतिक परिस्थिति के अस्तित्ववान कि मनष्य में निहित वासना रूपी पाप को अस्वीकत करने का अर्थ पक्ष अर्थात् चरित्र, प्रेरणाएँ, आदत, रागात्मकता, विभेदीकरण, उस बराई को ही दृष्टि से ओझल कर देना है, जिसके कारण मानवीय मल्य-निर्धारण और साध्य को दृष्टिगत रखता है। इन सभी पक्षों को सभ्यता का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है। मानवीय वासनाएँ पाप पूर्णतया दृष्टि में रखे बिना जीवन में विवेक पूर्ण आचरण की आशा हैं, अनैतिक हैं, इस बात को भूलकर हम मानवीय सभ्यता का ही ही नहीं की जा सकती। आचरण में विवेक एक ऐसी लोचपूर्ण दृष्टि विनाश करेंगे, जबकि उसके प्रति जागृत रहकर हम मानवीय सभ्यता है जो परिस्थितियों के सभी पक्षों की सम्यक् विचारणा के साथ खोज का विकास कर सकेंगे। बबिट बहुत ही ओजपूर्ण शब्दों में कहते हैं करती हुई सुयोग्य चुनावों को करती है। लेविन ने आचरण में विवेक कि हम में जैविक प्रवेग तो बहुत हैं, आवश्यकता है जैविक नियंत्रण का तात्पर्य एक समायोजनात्मक क्षमता से माना है। उसके अनुसार की। हमें अपनी वासनाओं पर नियंत्रण करना चाहिए। केवल सहानुभूति नैतिक होने का अर्थ मानव की मूलभूत क्षमताओं की अभिव्यक्ति है। के नाम पर सामाजिक एकता नहीं आ सकती। मनुष्यों को सहानुभूति
गर्नेट और लेविन के इन दृष्टिकोणों की तुलना जैन आचार-दर्शन के सामान्य तत्त्व के आधार पर नहीं वरन् अनुशासन के सामान्य तत्त्व के साथ करने पर हम पाते हैं कि आचरण में विवेक का प्रत्यय जैन. के आधार पर ही एक दूसरे के निकट लाया जा सकता है। सहानुभूति विचारणा एवं अन्य सभी भारतीय विचारणाओं में भी स्वीकृत रहा के विस्तार का नैतिक दर्शन केवल भावनात्मक मानवतावाद की स्थापना है। जैन विचारकों ने सम्यग्ज्ञान के रूप में जो साधना-मार्ग बताया करता है, जबकि आवश्यकता ऐसे ठोस मानवतावाद की है जो है वह केवल तार्किक ज्ञान नहीं है वरन् एक विवेकपूर्ण दृष्टि है। जैन- अनुशासन पर बनता है। परम्परा में आचरण में विवेक के लिए या विवेकपूर्ण आचरण के लिए तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते हुए हम यह पाते हैं कि सभी 'यतना' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'दशवैकालिक सूत्र' में स्पष्ट रूप समालोच्य आचार-दर्शन संयम के प्रत्यय को स्वीकार करते हैं। जैनसे यह बताया गया है कि जो जीवन की विभिन्न क्रियाओं को विवेक दर्शन नैतिक पूर्णता के लिए संयम का आवश्यक मानता है। उसके या सावधानीपूर्वक सम्पादित करता है वह अनैतिक आचरण नहीं करता त्रिविध साधना-पथ में सम्यक् आचारण को भी वही मूल्य है जो विवेक है। बौद्ध-परम्परा में भी यही दृष्टिकोण स्वीकृत रहा है। बुद्ध ने भी और भावना का है। 'दशवैकालिकसूत्र' में धर्म को अहिंसा, संयम 'अङ्गत्तरनिकाय' में महावीर के समान ही इसे प्रतिपादित किया है। और तपोमय बताया है। वस्तुत: अहिंसा और तप भी संयम के गीता में कर्म-कौशल को ही योग कहा गया है जो कि विवेक-दृष्टि पोषक ही हैं और इस अर्थ में संयम ही एक महत्त्वपूर्ण अंग है। का सूचक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि समालोच्य आचार-दर्शनों जैन भिक्षु-जीवन और गृहस्थ-जीवन में संयम या अनुशासन को सर्वत्र में भी आचरण में विवेक का प्रत्यय स्वीकृत रहा है।
ही महत्त्व दिया गया है। महावीर के सम्पूर्ण उपदेश का सार असंयम
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