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________________ ४ / विशिष्ट निबन्ध : ३६५ अनेकों स्थलों में यह स्पष्ट किया है कि परिणामी आत्मा और परिणामी पुद्गल एक-दूसरेके निमित्तसे परिणमन करते हैं । यदि आत्मद्रव्य में अपनेको बुद्धिपूर्वक अचारित्रसे चारित्रकी ओर ले जानेकी शक्यता या अवसरके उपयोग करनेकी प्रवृत्तियोग्यता हो तो क्यों ये सब चरित्रनिर्माण और जीवोद्धारके प्रयत्न आज तक असंख्य तीर्थंकरों व आचार्योंने किये ? ये तो इसीलिये हुए कि न मालूम किस निमित्तसे कौन सुलट जाय । किसकी उपादानयोग्यता किस निमित्तसे विकसित हो जाय। 'सब कार्य उपादान योग्यतासे होते हैं' इसमें किसीको विवाद नहीं है परन्तु उपादानयोग्यतायें सबमें मूलतः समान होनेपर भी उनके विकासको सामग्री . अनेक होती हैं । जिसकी योग्यता के विकास के लिए जो सामग्री फिट (अनुकूल) बैठ जाती है उससे उस योग्यताविकास हो जाता है । इसीलिए स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द' ने अनेक नयदृष्टियोंसे आत्माका वर्णन करके स्वकर्तृत्व की शक्यता और अवसरका विचार करके कषायत्याग और सत्प्रवृत्ति में प्रयत्न करनेका उपदेश दिया है । 'पुरुषार्थ से अनादिकालीन मलिन आत्मा भी धीरे-धीरे शुद्ध हो सकती है' यह शक्यता उनने स्वयं स्वीकार की है । आत्मस्वरूप तीर्थंकर महावीरने उपयुक्त सभी कुदृष्टियोंसे ऊपर उठकर केवलज्ञानसे आत्माका यथार्थ साक्षात्कार किया और बताया कि जगत्का प्रत्येक द्रव्य अपने मूलस्वरूपको अनादिसे रखता आया है और अनन्तकाल तक रखेगा, उसके मूलस्वरूपका कभी समूल विनाश नहीं हो सकता। इस तरह अपनी अनादि-अनन्त परम्परासे वह नित्य या ध्रुव होकर भी प्रतिक्षण अपनी पूर्व पर्यायको छोड़ता है और नवीन उत्तर पर्यायको ग्रहण करता हुआ पर्यायोंकी धारामें प्रवहमान है । कोई भी द्रव्य इसका अपवाद नहीं है । आत्मा जड़ पदार्थोंसे भिन्न स्वतन्त्र द्रव्य है । वह चैतन्यमय है और असंख्य परिवर्तन करनेपर भी वह अपने चैतन्यस्वरूपको नहीं छोड़ता । उसके जितने भी परिणमन हुए हैं या होंगे वे सभी चैतन्यमय होंगे। वही अनादिकाल से अशुद्ध हुआ चला आ रहा है और वही शुद्ध होगा । उसकी चैतन्यधारा में सामग्री के अनुसार असंख्य प्रकारके परिणमन होते रहते हैं । नियत अनियत तत्त्ववाद इसमें इतना नियत है कि १ - संसार में जितने द्रव्य हैं - यानी अनन्त आत्मद्रव्य, अनन्त पुद्गल परमाणु द्रव्य, असंख्यकालाणु द्रव्य, एक अधर्म द्रव्य और एक आकाश द्रव्य इनकी संख्या में न्यूनाधिकता नहीं हो सकती । न किसी नये द्रव्यकी उत्पत्ति होगी और न किसी मौजूदा द्रव्यका समूल विनाश ही, अनादिकालसे इतने ही द्रव्य थे, हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे । २- प्रत्येक द्रव्य अपने निज स्वभावके कारण पुरानी पर्यायको छोड़ता है, नई पर्यायका ग्रहण करता है और अपने प्रवाही सत्त्वकी अनुवृत्ति रखता है । द्रव्य चाहे शुद्ध या अशुद्ध इस परिवर्तनचक्रसे अछूता नहीं रह सकता । कोई भी किसी भी पदार्थके उत्पाद और व्यय रूप इस परिवर्तनको रोक नहीं सकता और न इतना विलक्षण परिणमन ही करा सकता है कि वह अपने मौलिक सत्वको ही समाप्त कर दे और सर्वथा उच्छिन्न हो जाय । १. आचार्य कुन्दकुन्दके निश्चय व्यवहारके स्वरूपके लिये देखिये लेखकका 'जैन-दर्शन' नामक मौलिक ग्रन्थ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.211285
Book TitleNischaynay Sarvagyata aur Adhyatma Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZ_Mahendrakumar_Jain_Nyayacharya_Smruti_Granth_012005.pdf
Publication Year
Total Pages12
LanguageHindi
ClassificationArticle & Spiritual
File Size940 KB
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