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६२ : सरस्वती-वरदपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन-ग्रन्थ
जीवमें औपशमिक या क्षायिकरूप वीतरागचारित्र, यथाख्यातचारित्र या निश्चयचारित्र रह सकता है ? अर्थात् कोई भी व्यक्ति इस बातको स्वीकार नहीं करेगा और यही कारण है कि आचार्य अमतचन्द्रने समयसार गाथा ३३५ की टीकामें व्यवहाराचार सूत्रका उद्धरण देकर व्यवहारसम्यक चारित्रको तब तक अमृतकुम्भ कहा है जब तक जीवको निश्चयसम्यक चारित्रकी प्राप्ति नहीं हो जाती है और भगवान कुन्दकुन्दने उसी व्यवहारसम्यक्चारित्रको तब विश्वकुम्भकी उपमा दे दी है जब जीवको निश्चयसम्यक्चारित्रकी उपलब्धि हो जाती है। इस तरह यह बात निर्णीत हो जाती है कि जब तक जीवको निश्चयसम्यकचारित्रकी प्राप्ति नहीं हो जाती है तब तक मोक्षप्राप्तिके उद्देश्यसे परंपरया मोक्षके कारणभत व्यवहारसम्यक्चारित्रकी नियमसे उपयोगिता है। लेकिन तभी तक व्यवहारसम्यकचारित्रकी उपयोगिता है जब तक जीवको निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्ति नहीं हो जाती है, आगे नहीं।
अब आगे इस बात पर विचार किया जाता है कि आगममें निश्चयमोक्षमार्गको जो भूतार्थ, सद्भूत, वास्तविक या सत्यार्थ आदि नामोंसे पुकारा जाता है और व्यवहारमोक्षमार्गको जो अभूतार्थ, असद्भूत, अवास्तविक या असत्यार्थ आदि नामोंसे पुकारा जाता है, तो इसमें आगमका अभिप्राय क्या है ?
आगममें निश्चयमोक्षमार्गको जो भूतार्थ आदि नामोंसे पुकारा जाता है इसमें आगमका अभिप्राय इतना ही लेना चाहिये कि निश्चयमोक्षमार्गकी इससे साक्षात् कारणताका बोध हो जाता है और चंकि मोक्षकी साक्षात् कारणताका व्यवहारमोक्षमार्गमें अभाव पाया जाता है, कारण कि उसमें तो परंपरया ही कारणता पायी जाती है । अतः उसे अभूतार्थ आदि नामोंसे पुकारा जाता है। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं लेना चाहिये कि "व्यवहारमोक्षमार्गको मोक्षकी प्राप्तिमें कुछ भी उपयोगिता नहीं है, वह तो वहाँ पर सर्वथा अकिचित्कर ही है", कारण कि पूर्वोक्त प्रकारसे व्यवहारमोक्षमार्ग मोक्षप्राप्तिमें परंपरया कारण नि यमसे होता है। इस तरह व्यवहारमोक्षमार्ग, मोक्षप्राप्तिकी साक्षात् कारणताका अभाव रहनेसे जहाँ अभतार्थता आदि धर्म सिद्ध होते हैं वहाँ उसमें मोक्षप्राप्तिकी परंपरया कारणताका सदभाव रहनेसे भतार्थता आदि धर्म भी सिद्ध होते हैं। इस तरह कहना चाहिये कि निश्चयमोक्षमार्ग तो सर्वथा भूतार्थ आदि है क्योंकि उसमें मोक्षकी साक्षात् कारणता विद्यमान है और व्यवहारमोक्षमार्ग कथंचित् भूतार्थ आदि हैं क्योंकि उसमें मोक्षकी परंपरया कारणता विद्यमान है और कथंचित् अभूतार्थ आदि भी हैं क्योंकि उसमें मोक्षको साक्षात् कारणताका अभाव है। इस तरह इसे सर्वथा अभूतार्थ तो नहीं माना जा सकता है, कारण कि जब पूर्वोक्त प्रकारसे व्यवहारसम्यक्चारित्रका सद्भाव १०वें गुणस्थान तक मानना अनिवार्य है, ११वें और १२वें गुणस्थानमें ही निश्चयसम्यकचारित्रकी उपलब्धि जीवको होती है तो इसे मोक्षका सर्वथा अकारण कैसे माना जा सकता है, जिससे कि इसे सर्वथा अभूतार्थ आदि माना जा सके ?
इस कथनका तात्पर्य यह है कि मोक्षप्राप्तिके साक्षात् कारणभूत निश्चयमोक्षमार्गकी प्राप्ति किसी भी जीवको व्यवहारमोक्षमार्गको अपनाये बिना संभव नहीं है। अर्थात् निश्चयमोक्षमार्गकी प्राप्तिके लिये प्रत्येक जीवको हर हालतमें व्यवहारमोक्षमार्ग को अपनाना ही होगा।
इतना स्पष्टीकरण हो जानेके बाद जो व्यक्ति व्यवहारमोक्षमार्गको संसारका कारण मानते हैं वे बहत
१. अपडिकमणं अपरिसरणं अप्पडिहारो अधारणा चेव । अणियत्ती य अणिदाऽगरुहाऽसोही य विसकुंभो ॥१॥ पडिकमणं परिसरणं परिहारो धारणा णियत्ती य । जिंदा गरुहा सोही अट्टविहो अमयकुंभो दु॥२॥
-व्यवहाराचारसूत्र २. समयसार, गाथा, ३०६-३०७ ।
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