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६० : सरस्वती - वरवपुत्र पं० बंशीधर व्याकरणाचार्य अभिनन्दन ग्रन्थ
( सार्थकत्व) माना जा सकता है और दूसरा कारण यह है कि उक्त ज्ञानकी उपयोगिता मध्यदीपकन्यायसे सम्यग्दर्शनकी तरह सम्यक्चारित्र पर आरूढ़ होने के लिये भी आवश्यक है ।
व्यवहारसम्यक्चारित्रका स्वरूप
बुद्धिपूर्वक और अबुद्धिपूर्वक होने वाली समस्त कषायजन्य पाप और पुण्यमय प्रवृत्तियोंसे निवृत्ति पाकर अपने आत्मस्वरूपमें लीन होने रूप निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्तिके लिये यथाशक्ति अणुव्रत, महाव्रत, समिति, गुप्ति, धर्म और तप आदि क्रियाओं में जीवकी प्रवृत्ति होना व्यवहारसम्यक् चारित्र है ।
निश्चयसम्यक्चारित्रका अपर नाम यथाख्यातचारित्र है । इसे वीतरागचारित्र और करणानुयोगकी दृष्टिमें औपशमिक तथा क्षायिक चारित्र भी कहा जाता है ।" इनकी प्राप्ति जीवोंको उपशमश्रेणी चढ़कर ११वें गुणस्थानमें पहुँचनेपर औपशमिक चारित्रके रूपमें अथवा क्षपकश्रेणी चढ़कर १२वे गुणस्थानमें पहुँचने पर क्षायिक चारित्रके रूपमें होती है । परन्तु ११ वें गुणस्थानके औपशमिक चारित्र और १२वें गुणस्थानके क्षायिक चारित्र में इतना अन्तर है कि उपशमश्रेणी चढ़कर ११वें गुणस्थान में पहुँचने वाला जीव अन्तर्मुहूर्त के अल्पकालमें ही पतनकी ओर मुड़ जाता है । अतः जहाँ उसका औपशमिक चारित्र तत्काल ( अन्तर्मुहूर्तमें) समाप्त हो जाता है वहाँ क्षपकश्रेणी चढ़कर १२वें गुणस्थानमें पहुँचने वाले जीवका क्षायिक चारित्र स्थायी रहता है और वह जीव पतनकी ओर न मुड़ कर अन्तर्मुहूर्त के अल्पकालमें ही १२वें गुणस्थानसे १३वें गुणस्थान में पहुँच कर सर्वज्ञताको प्राप्त कर लेता है । इसी निश्चयचारित्रकी प्राप्तिके लिये चतुर्थ गुणस्थानका अविरतसम्यग्दृष्टि जीव पाँचवें गुणस्थानमें अणुव्रत धारण करता है तथा और भी आगे बढ़ कर छठे गुणस्थान में महाव्रत भी धारण करता है। इतना ही नहीं, घोर तपश्चरण करके आगे बढ़ता हुआ वह जीव सातवें गुणस्थानमें शुद्धोपयोगी भूमिकाको प्राप्त हो कर आत्मपरिणामोंकी उत्तरोत्तर बढ़ती हुई यथायोग्य विशुद्धि के आधारपर उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी माड़ता है। इस तरह कहना चाहिये कि जब तक उस जीवको उपर्युक्त निश्चयसम्यक्चारित्रकी प्राप्ति नहीं हो जाती है तब तक वह पाँचवें और छठें गुणस्थानोंमें तो बुद्धिपूर्वक और सातवेंसे लेकर १० वें तकके गुणस्थानोंमें अबुद्धिपूर्वक उपर्युक्त व्यवहारचारित्रकी पालनामें ही लगा रहता है। इस व्यवहारचारित्रका भी अपर नाम सरागचारित्र और करणानुयोगकी दृष्टिमें क्षायोपशमिक चारित्र है ।
अणुव्रत और महाव्रत तथा समिति, गुप्ति, धर्मं एवं तपश्चरण आदि क्रियाएँ पूर्वोक्त सम्यग्दर्शनसे रहित कोई-कोई मिथ्यादृष्टि जीव भी करने लगते हैं । इतना ही नहीं, इन क्रियाओंको संलग्नताके साथ करनेसे वे यथासंभव स्वर्ग में जन्म धारण करके नवें ग्रैवेयक तक भी पहुँच जाते हैं, परन्तु यह बात ध्यानमें रखने योग्य है कि इन क्रियाओंकी निश्चयसम्यक्चरित्रकी प्राप्तिपूर्वक मोक्षप्राप्तिरूप सार्थकता सम्यग्दर्शनके आधार पर ही हुआ करती है, अन्यथा नहीं, क्योंकि जीव जब तक मिथ्यादृष्टि बना रहता है तब तक उसको अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषायोंका क्षयोपशम होना असंभव है जबकि अणुव्रत और महाव्रत आदिरूप व्यवहारसम्यक् चारित्र यथायोग्य इन कषायोंका आगममें बतलायी गयी प्रक्रियाके अनुसार क्षयोपशम होनेपर ही उत्पन्न होता है ।
इस विवेचनसे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि चरणानुयोगमें जो सम्यग्दर्शनादि रूप निश्चय और
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१. प्रवचनसार, गाथा ७ ।
२. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा ३०, ३१ ।
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